मध्यप्रदेश का आधुनिक इतिहास | Modern History of MP| MPPSC ,UPSC, PEB
आधुनिक इतिहास
मध्यप्रदेश के इतिहास में आधुनिक इतिहास का प्रारंभ मराठों के उत्कर्ष और ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के साथ हुआ। मध्यप्रदेश के आधुनिक इतिहास को होल्कर, सिंधिया जैसे मराठा वंशों की उपस्थिति भी काफी समय तक प्रभावित करती रही।
मराठा काल:
1722 ई. में बाजीराव ने मालवा पर प्रथम बार आक्रमण किया। इसके पश्चात् 1724 ई. में इस भू-भाग में चौथ के लिए युद्ध लड़ा। इसके बाद पेशवा की तरफ से मल्हारराव होल्कर, रानोजी सिंधिया और उदय पवार आदि ने आक्रमण किया। इसके बाद इस भू-भाग पर मराठों के आक्रमण लगातार होते रहे।
होल्कर वंश:
मल्हारराव होल्कर इस वंश के संस्थापक थे। होल गॉंव के निवासी होने के कारण ये वंश होल्कर कहलाया। 1727 ई. में मल्हारराव होल्कर को पेशवा ने मालवा के 5 महलों की सनद प्रदान की। मल्हारराव की मृत्यु के बाद उसके नाती मालेराव होल्कर (खांडेराव का पुत्र) के नाम पर मल्हारराव की पुत्रवधु अहिल्याबाई ने पेशवा की अनुमति से राज्य का कार्यभार संभाला। मालेराव की मृत्यु के पश्चात् अहिल्याबाई ने राज्य की बागडोर अपने हाथों में ले ली और तुकोजी होल्कर को अपना सेनापति बनाया।
अहिल्याबाई भगवान शंकर की उपासिका थीं। अहिल्याबाई की मृत्यु के बाद तुकोजी होल्कर ने कार्यभार संभाला। होल्कर वंश के शासकों ने लगभग दो शताब्दी तक इंदौर पर शासन किया। होल्कर वंश के अंतिम शासक तुकोजी तृतीय के समय इस राज्य का भारत संघ में विलय करके मध्य भारत का अंग बना दिया गया। होल्करों ने 1857 की गदर में क्रांतिकारियों का समर्थन गुप्त रूप से किया था।
सिंधिया वंश:
राणोजी शिंदे इस वंश के संस्थापक थे। वे कन्हेरखेड़ा के पाटील परिवार से थे। 1729 ई. में उन्होंने अमझेरा के युद्ध में वीरता का प्रदर्शन किया था। महादजी सिंधिया इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था। महादजी सिंधिया ने लोकेन्द्र सिंह जाट से ग्वालियर का किला छीन लिया। महादजी सिंधिया ने मुगल सम्राट शाह आलम को गुलाम कादिर से आजाद कराया था। इसके बदले मुगल सम्राट ने महादजी को अपना प्रधानमंत्री बनाया और प्रशासनिक अधिकार दे दिये। महादजी सिंधिया ने ग्वालियर साम्राज्य की स्थापना की। 1810 ई. तक उज्जैन सिंधिया वंश की राजधानी था।

इसके बाद महादजी सिंधिया के उत्तराधिकारी दौलतराव सिंधिया ने ग्वालियर को अपनी राजधानी बनाया। इनके पश्चात् जानकोजी, जयाजीराव, माधवराव प्रथम और जीवाजीराव शासक बने। माधवराव सिंधिया प्रथम की मृत्यु के बाद जीवाजी राव सिंधिया को 9 वर्ष की अल्पआयु में ग्वालियर रियासत का शासक बनाया। जीवाजी राव के वयस्क होने तक रियासत का प्रशासन चलाने के लिए कौंसिल ऑफ रीजेंसी का गठन किया था जिसका अध्यक्ष महारानी को बनाया गया था। जीवाजी राव सिंधिया के काल में ही मध्य भारत के राजाओं का एक संघ बनाया गया जिसे मध्य भारत का नाम दिया गया। मई 1948 ई. में पं. जवाहर लाल नेहरू ने मध्य भारत का उद्घाटन किया और जीवाजी राव को पहले राज प्रमुख के रूप में शपथ दिलाई। सिंधिया वंश ने 1857 के गदर में अंग्रेजों का साथ दिया था।
मध्यप्रदेश स्वतंत्रता संग्राम:
1818 ई. में मध्यप्रदेश में अंग्रेजों की खिलाफत सबसे पहले महाकौशल क्षेत्र में दिखाई दी जिसका नेतृत्व नागपुर शासक अप्पाजी भोंसले द्वारा किया गया क्योंकि अंगेजी सेना ने उन्हें मण्डला, बैतूल, सिवनी, छिंदवाड़ा और नर्मदा घाटी का क्षेत्र छोड़ देने हेतु बाध्य किया था। अप्पाजी भौंसले ने अरब सैनिकों की सहायता से बैतूल के मुल्ताई में अंग्रेजों से युद्ध किया। इस युद्ध में उनकी पराजय हुई। 1833 ई. में रामगढ़ नरेश जुझार सिंह के पुत्र देवनाथ सिंह ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया। 1842 ई. की दुराभि संधि से नाराजगी के कारण सागर, दमोह, नरसिंहपुर, जबलपुर, मंडला और होशंगाबाद में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह फैल गया।
भरहुत के मधुकरशाह, चन्द्रपुर(सागर) के जवाहर सिंह बुंदेला, हीरापुर के किरेन शाह, और मदनपुर(नरसिंहपुर) के गोंड मुखिया दिल्हन शाह 1842 ई. के विद्रोह के प्रमुख नायक थे। परंतु आपसी सामंजस्य न होने के कारण अंग्रेज इस विद्रोह के दबाने में सफल रहे। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन् 1857 में मेरठ, कानपुर, लखनऊ, दिल्ली, बैरक्पुर आदि के विद्रोह की लपटें मध्यप्रदेश में भी पहुंची। तात्या टोपे और नाना साहेब पेशवा के संदेश वाहक ग्वालियर, इंदौर, महू, नीमच, मंदसौर, जबलपुर, सागर, दमोह, भोपाल, सीहोर और विंध्य के क्षेत्रों में घूम-घूमकर विद्रोह का अलख जगाने में लग गए। उन्होंने स्थानीय राजाओं और नवाबों के साथ-साथ अंग्रेजी छावनियों के हिंदुस्तानी सिपाहियों से संपर्क बनाए।
इस कार्य के लिए “रोटी और कमल का फूल” गांव-गांव में घुमाया जाने लगा। 3 जून 1857 को नीमच के पैदल व घुड़सवार टुकडि़यों द्वारा विद्रोह कर वहॉं की छावनी में आग लगा दी गई। कर्नल सी बी सोबर्स ने उदयपुर के राजपूतों के साथ मिलकर नीमच के किले व निम्बाहेड़ा पर कब्जा कर नीमच छावनी के विद्रोह को दबा दिया। नीमच के बाद मदसौर में भी विद्रोह हुआ। 14 जून 1857 ग्वालियर के पास मुरार छावनी में सैनिक विद्रोह हुआ और उनके द्वारा ग्वालियर व शिवपुरी के बीच संचार व्यवस्था को भंग कर दिया गया एवं अल्पकाल के ग्वालियर पर सैनिकों का अधिकार हो गया। इस समय महाराजा सिंधिया ने भागकर आगरा शरण ली। इस तरह शिवपुरी, गुना, और मुरार में भी विद्रोह भड़का।
सागर में शेख रमजान के नेतृत्व में अश्वरोही टुकड़ी ने विद्रोह किया। रानी दुर्गावती के वंशज शंकरशाह और उसके पुत्र ने गढ़ा मण्डला में, श्री बहादुर और देवी सिंह ने मण्डला में, किशोर राजा ठाकुर प्रसाद ने राघवगढ़ में और जमींदार नारायण सिंह ने रायपुर में विद्रोह का नेतृत्व किया। अंग्रेजों ने राजाशंकर शाह और उनके पुत्र को तोप से उड़ा दिया। श्री बहादुर, देवी सिंह और नारायण सिंह को फॉंसी दे दी गयी। किशोर राजा ठाकुर प्रसाद को आजीवन कारावास की सजा देकर बनारस भेज दिया गया जहॉं उनकी मृत्यु हो गई। 20 जून 1857 को शिवपुरी में हुए विद्रोह के कारण अंग्रेज अधिकारियों को गुना भागना पड़ा।
इसी समय बुंदेलखण्ड के सैनिकों ने भी विद्रोह कर दिया। विद्रोहियों ने 1 जुलाई 1857 को सादत खॉं के नेतृत्व में इंदौर जा रही सेना पर हमला कर दिया जिसमें विद्रोदियों ने अंग्रेजों के साथ युद्ध किया। युद्ध में अंग्रेजी सेना की हार हुई। इस युद्ध मे होल्कर ने भी अप्रत्यक्ष रूप से विद्रोहियों का साथ दिया। इस समय सभी अंगेज अधिकारी (कर्नल ड्यूरेण्ड, कर्नल स्टाकतो ट्रेर्बन, कैप्टन लुडओ व कैप्टन कीथ) जो इंदौर में मौजूद थे सीहोर भाग गए। वहॉं उनकी मदद भोपाल की बेगम सिकन्दर द्वारा की गई। जुलाई 1857 में महु में भी विद्रोह हुआ जिसमे सैनिकों ने भरपूर साथ दिया। इस समय दिल्ली के शहजादा हुमायूँ ने मंदसौर जाकर मेवाती, सिंधिया व बनावली सेना के कुछ सैनिकों की मदद से एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की जो फिरोजशाह के नाम से मंदसौर का राजा बना गया।
मण्डलेश्वर की घुड़सवार व पैदल सेना की टुकड़ी ने यहॉं की सेंट्रल जेल पर हमला कर दिया। इस घटनाक्रम में बंगाल रेजीमेंट के कैप्टन बेंजामिन हेब्स मारे गये। इसी समय मंडलेश्वर, सेंधवा, एड़वानी आदि क्षेत्रों में आदिवासी विद्रोह का नेतृत्व भीमा नायक ने किया। मंडला जिले की एक छोटी सी रियासत रामगढ़ के जमींदार की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने इस रियासत की देखभाल के लिए राज्य हड़पो नीति के तहत एक अंग्रेज तहसीलदार की नियुक्ति की गई। रानी अवंतीबाई की सेना ने अंग्रेजों की इस राज्य हड़प नीति को भॉंपकर उन्हें अंग्रेजों से मुक्त कराने का संकल्प लिया। इसके लिए उन्होंने मण्डला की सीमा पर खेड़ी गॉंव में युद्ध भूमि में अंग्रेज सेनापति वार्डन को भागने पर मजबूर कर दिया।
इसके बाद रानी अवंतीबाई ने रामगढ़ में अंग्रेज तहसीलदार की हत्या कर पुन: अपने राज्य पर अधिकार कर लिया। दिसंबर 1857 में अंग्रेज सेनापति वार्डन ने रीवा राज्य की सेना की सहायता से रामगढ़ के किले पर आक्रमण कर दिया। तीन माह के घेराव के पश्चात् रसद समाप्त हो जाने के कारण रानी अवंतीबाई देवहारगढ़ के जंगलों की तरफ चली गईं। जब सेनापति वार्डन को यह पता चला तो वह भी जंगलों की तरफ चल पड़ा। जंगल में दोनों के बीच युद्ध हुआ। जब रानी अवंतीबाई को महसूस हुआ कि वह पकड़ी जा सकती हैं तो उसने अपनी अंगरक्षिका गिरधारीबाई से कटार लेकर अपनी छाती में घोंपकर अपने प्राणों की आहूति दे दी। गिरधारीबाई ने भी ऐसा ही किया। रानी अवंतीबाई को रामगढ़ की झॉंसी की रानी के नाम से भी जाना जाता है।
रानी लक्ष्मीबाई इस क्रांति की मुख्य पात्र थीं। मई 1858 में राजा गंगाधर की विधवा झॉंसी की रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे (रामचंद्र पांडुरंग) ने मिलकर कालपी में ह्यूरोज के नेतृत्व वाली अंग्रेजी सेना पर आक्रमण किया जिसमें रानी लक्ष्मीबाई बुरी तरह से घायल हुई। जून 1858 रानी लक्ष्मीबाई लड़ते लड़ते वीरगति को प्राप्त हुईं। तात्य टोपे को सिंधिया के सामंत मानसिंह द्वारा पकड़कर अंग्रेजों का सौंप दिया गया जिसे अंग्रेजों ने शिवपुरी में फाँसी दी गई।
स्वतंत्रता आंदोलन:
देश में स्वतंत्रता आंदोलन के द्वितीय चरण के तहत सर्वप्रथम 28 दिसंबर 1885 ई. को ए. ओ. ह्यूम ने गोकुल दास तेजपाल संस्कृत कॉलेज मुंबई के भवन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। 1886 ई. में कलकत्ता में दादा भाई नैरोजी की अध्यक्षता में कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में मध्य भारत से बापूराव, दादाकिन खेड़े, गंगाधर चिटनिस, गोपाल हरिभिडे और अब्दुल अजीज ने भाग लिया। 1891 ई. में पी. आनंद चार्लू की अध्यक्षता में आयोजित सातवें अधिवेशन में मध्य प्रांत व मालवा आदि क्षेत्रों में गणेश उत्सव और शिवाजी उत्सव आदि के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का प्रचार किया जाने लगा। 1893 ई. में दादा भाई नौरोजी की अध्क्षता वाले लाहौर अधिवेशन में मध्यप्रदेश के डॉ. हरिसिंह गौड़ ने न्याय और शासन को अलग अलग रखने की मॉंग की थी। इसी बीच खण्डवा सुबोध सिंधु और जबलपुर से जबलपुर टाइम्स का प्रकाशन किया जाने लगा। पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने अपने पत्र कर्मवीर के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना के प्रचार में नई दिशा दी। 1904 ई. में हरिसिंह गौड़ ने अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का कड़ा विरोध किया। 1907 ई. में जबलपुर में क्रांतिकारी दल का गठन किया गया। 1939 ई. में मध्यप्रदेश के त्रिपुरी (जबलपुर) नामक स्थान पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 53वां अधिवेशन आयोजित किया गया जिसकी अध्यक्षता सुभाषचंद्र बोस ने की। इस अधिवेशन के बाद उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
खिलाफत और असहयोग आंदोलन:
1916 ई. में मध्यप्रदेश के सिवनी जिले से स्वतंत्रता आंदोलन प्रारंभ हुआ जिसने 1920-21 ई. के कांग्रेस के खिलाफत तथा असहयोग आंदोलन का रूप ले लिया। मध्यप्रदेश में खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व अब्दुल जब्बार खॉं और असहयोग आंदोलन का नेतृत्व प्रभाकर डुण्डीराज जटार ने किया। 1922 ई. में भोपाल की सीहोर कोतवाली के सामने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई।
कसाईखाना आंदोलन:
1920 ई. में ब्रिटिश सरकार ने मध्यप्रदेश के सागर के समीप रतौना में बहुत बड़ा कसाईखाना खोलने का निर्णय लिया। इस कसाईखाने में केवल गौवंश काटा जाना था। इनको बन्द कराने का बीड़ा समाचार पत्रों ने उठाया। साप्ताहिक पत्र “कर्मवीर’ जबलपुर के सम्पादक पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने अपने समाचार पत्र कर्मवीर में रतौना कसाईखाने के विरोध में गो-संरक्षण के समर्थन में कसाईखाने के विरुद्ध व्यापक आंदोलन चलाने का आह्वान किया। इस कसाईखाने के विरुद्ध जबलपुर के एक और पत्रकार उर्दृ दैनिक समाचार पत्र ‘ताज’ के संपादक मिस्टर ताजुद्दीन मोर्चा पहले ही खोल चुके थे। सागर में मुस्लिम नौजवान और पत्रकार अब्दुल गनी ने भी पत्रकारिता एवं सामाजिक आंदोलन के माध्यम से गोकशी के लिए खोले जा रहे इस कसाईखाने का विरोध किया। लाहौर से प्रकाशित लाला लाजपत राय के समाचार पत्र ‘वंदेमातरम्’ ने तो एक के बाद एक अनेक आलेख कसाईखाने के विरोध में प्रकाशित किए। माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का ही प्रभाव था कि मध्यभारत में अंग्रेजों की पहली हार हुई। मात्र तीन माह में ही अंग्रेजों को कसाईखाना खोलने के फैसले को वापस लेना पड़ा।
झण्डा सत्याग्रह:
1923 ई. में हुआ झण्डा सत्याग्रह एक शांतिपूर्ण अवज्ञा आंदोलन था जिसमें लोग राष्ट्रीय झण्डा फहराने के अपने अधिकार के तहत जगह-जगह झण्डे फहरा रहे थे। 1923 ई. में जबलपुर में हुए प्रथम झण्डा सत्याग्रह का नेतृत्व देवदास गांधी, रामगोपाल आचार्य तथा डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने किया। असहयोग आंदोलन के तैयारी के लिए पहुँचे अजमल खॉं और कांग्रेसियों के सम्मान में जबलपुर नगरपालिका भवन पर तिरंगा फहराने की रणनीति कांग्रेस ने बनाई। ब्रिटिश पुलिस कमिश्नर ने तिरंगे को उतरवाकर पैरों से कुचल दिया। इसके विरोध में पं. सुन्दरलाल शर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, लक्ष्मण सिंह चौहान, नाथूराम मोदी, नरहरि अग्रवाल आदि के नेतृत्व में जुलूस निकाला, जिन्हें पुलिस ने रोक दिया लेकिन दूसरे जत्थे ने टाउन पर झण्डा फहरा दिया। राष्ट्रीय ध्वज फहराने के कारण पं. सुन्दरलाल को 6 माह की कारवास की सजा हुई। 13 अप्रैल 1923 में नागपुर में शुरू हुए झण्डा सत्याग्रह के साथ जबलपुर में पुन: सरोजिनी नायडू व मौलाना आजाद की उपस्थिति में कन्छोड़ीलाल, बंशीलाल और काशीप्रसाद ने एक बार फिर टाइनहाल पर तिरंगा लहरा दिया। 1923 ई. में सिवनी से भी बड़ी संख्या में स्वतंत्रता सेनानियों ने झण्डा सत्याग्रह में भाग लिया। सीताराम जाधव, छिग्गेलाल स्वर्णकार आदि ने झण्डा सत्याग्रह में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 1920 ई. के माखनलाल चतुर्वेदी के नेतृत्व वाले रतौना (सागर) कसाईखाना आंदोलन की सफलता के बाद झण्डाग्रह दूसरा प्रबल आंदोलन था जिसमें ब्रिटिश सरकार की हार हुई।
नमक सत्याग्रह:
6 अप्रैल 1930 को जबलपुर में सेठ गोविंद दास और पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र के नेतृत्व में नमक सत्याग्रह की शुरूआत की गई। नमक सत्याग्रह के दौरान सिवनी जिले के दुर्गाशंकर मेहता ने गांधी चौक पर नमक बनाकर सत्याग्रह की शुरूआत की। मध्यप्रदेश में जबलपुर और सिवनी के अलावा खंडवा, सीहोर, रायपुर आदि शहरों भी नमक कानून तोड़ा गया।
जंगल सत्याग्रह:
नमक सत्याग्रह के दौरान 1930 ई. में सिवनी, टुरिया (सिवनी जिला) व घोड़ा-डोंगरी (बैतुल जिला) के आदिवासियों ने जंगल सत्याग्रह किया। उन्होंने कंधे पर कंबल और हाथ में लाठी लेकर जंगल और पहाड़ों के लिए सत्याग्रह छेड़ा। टुरिया में चार आदिवासी पुलिस के गोली से मारे गए। जंगल सत्याग्रह के दौरान घोड़ा-डोंगरी में गंजन सिंह कोरकू और बंजारी सिंह कोरकू के नेतृत्व में पुलिस को प्रबल प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। यह आंदोलन बैतूल, बंजारी ढाल, छिंदवाड़ा, ओरछा सिवनी, टूरिया, घुनघटी और हरदा के जंगलों में व्यापक रूप से हुआ।
चरण पादुका नरसंहार:
14 जनवरी 1931 ई. को मकर संक्रांति के दिन छतरपुर क्षेत्र में उर्मिल नदी के के किनारे चरण पादुका ग्राम में स्वतंत्रता सेनानियों की शांतिपूर्ण बैठक पर पुलिस द्वारा अंधाधुंध गोलियाँ चलाई गईं जिसमें छ: स्वतंत्रता सेनानी शहीद हो गए। स्वतंत्रता सेनानियों की बैठक पर गोली चलाने का आदेश कर्नल फिशर द्वारा दिया गया। यह घटना मध्यप्रदेश का जलियावाला हत्याकांड कहलाता है।
पंजाब मेल हत्याकांड:
23-24 जुलाई 1931 ई. की रात वीर यशवंत सिंह, देव नारायण तिवारी और दलपत राव ने दिल्ली से मुंबई की ओर जा रही पंजाब मेल ट्रेन पर आक्रमण कर अंग्रेज अधिकारी लेफ्टिनेंट हैक्स की हत्या कर दी। यह घटना खंडवा जिले में घटित हुई थी। इस घटना के लिए यशवंत सिंह व देव नारायण तिवारी को फांसी और दलपत राव को कालापानी की सजा दी गई।
व्यक्तिगत सत्याग्रह:
सितम्बर 1939 ई. को भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड लिनलिथगो ने यह घोषणा की कि भारत भी द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल है। इस घोषणा से पूर्व उसने किसी भी राजनैतिक दल से परामर्श नहीं किया। इससे कांग्रेस असंतुष्ट हो गई। महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश सरकार की युद्धनीति का विरोध करने के लिए 1940 ई. में अहिंसात्मक व्यक्तिगत सत्याग्रह आरम्भ किया। इस सत्याग्रह में महात्मा गाँधी के द्वारा चुना हुआ सत्याग्रही पूर्व निर्धारित स्थान पर भाषण देकर गिरफ्तारी देता था और वह सत्याग्रही अपने भाषण से पूर्व सत्याग्रह की सूचना जिला मजिस्ट्रेट को भी देता था। यदि सत्याग्राही को सरकार द्वारा गिरफ्तार नहीं किया जाता है तो वह गांवों से होते हुए दिल्ली की ओर मार्च करेगा। इसे दिल्ली चलो आंदोलन भी कहा जाता है। व्यक्तिगत सत्याग्रह का मुख्य कारण अगस्त प्रस्ताव और द्वितीय विश्वयुद्ध में शामिल करने की युद्ध नीति का विरोध करना था। इस सत्याग्रह का केंद्रबिन्दु अहिंसा था जो सत्याग्रहियों के चयन द्वारा ही पाया जा सकता था। आचार्य विनोबा भावे, पंडित जवाहर लाल नेहरू और ब्रह्मदत्त क्रमश: पहले, दूसरे और तीसरे सत्याग्रही थे। मध्यप्रदेश इस सत्याग्रह की शुरूआत जबलपुर से हुई थी।
भारत छोड़ो आंदोलन:
1942 ई. में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरूआत सबसे पहले विदिशा में हुई। गांधीजी के करो या मरो से प्रेरणा लेकर मंडलेश्वर जेल में बंद क्रांतिकारियों ने जेल तोड़कर अंग्रेजों के विरुद्ध सभा की और विद्रोह का प्रदर्शन किया। वे पुन: पकड़ कर जेल में डाल दिए गए। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान प्रदेश में क्रांति का उग्र रूप दिखा एवं जबलपुर, खण्डवा, होशंगाबाद, दमोह, सागर, आदि स्थानों में व्यापक आंदोलन हुए। भोपाल के नवाब के विरुद्ध भारत छोड़ो आंदोलन के बाद एक तीव्र आंदोलन हुआ जिससे घबराकर नवाब ने भोपाल का विलय भारत में स्वीकार किया।
मध्यप्रदेश के प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानी:
कुँवर चैनसिंह:
कुंवर चैन सिंह मध्य प्रदेश में भोपाल के निकट स्थित नरसिंहगढ़ रियासत के राजकुमार थे। वे 24 जून 1824 को अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। कुँवर चैन सिंह सीहोर के दशहराबाग वाले मैदान में शहीद हुए थे। कुंवर चैन सिंह की समाधी सीहोर – इंदौर रोड दशहरा वाला मैदान से 2 किमी दूर है। ये समाधियां नरसिंहगढ़ स्टेट के देशभक्त युवराज चैनसिंह और ब्रिटिश पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक के बीच की ऐतिहासिक लड़ाई की याद दिलाते हैं। कुँवर चैन सिंह को मध्यप्रदेश का प्रथम शहीद कहलाने का गौरव भी मिला है। उन्हें मालवा का मंगल पांडे भी कहा जाता है। कुंवर चैन सिंह की धर्मपत्नी कुंवरानी राजावत जी ने उनकी याद में परशुराम सागर के पास एक मंदिर भी बनवाया जिसे हम कुंवरानी जी के मंदिर के नाम से जानते है। मध्यप्रदेश शासन ने 2015 से प्रति वर्ष जुलाई माह में इनके सम्मान में कार्यक्रम आयोजित कर गार्ड ऑफ़ ऑनर प्रारंभ किया है।
राजा शंकर शाह:
राजा शंकर शाह गोंडवाना के राजा थे। इनका जन्म 1783 ई. में हुआ था। इनके पिता का नाम सुमेरशाह था। उनके पुत्र का नाम रघुनाथ शाह था। 18 सितम्बर 1857 को उन्हें उनके पुत्र सहित विप्लव भड़काने के अपराध में तोप के मुँह से बांधकर उड़ा दिया था।
राजा बख्तावर सिंह:
महाराणा बख्तावरसिंह मध्यप्रदेश के धार जिले के अमझेरा कस्बे के शासक थे। उनका जन्म 14 दिसम्बर सन् 1824 को अमझेरा के महाराजा अजीतसिंह एवं महारानी इन्द्रकुंवर के पुत्र के रूप में हुआ था। महाराजा अजीतसिंहजी की मृत्यु के बाद 21दिसंबर 1831 को मात्र सात वर्ष की आयु में राव बख्तावरसिंह सिंहासना पर बैठे। मालवा की धरती पर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों से मुकाबला करने वाले वे ऐसे नेतृत्वकर्ता थे जिन्होंने अंग्रेजों की सत्ता की नींव को कमजोर कर दिया था। अमझेरा की सेना ने सर्वप्रथम 2 जुलाई 1857 को अंग्रेजों के विरूद्ध क्रान्ति का शंखनाद किया था। उन्हें 10 फरवरी 1858 को इंदौर के महाराजा यशवंत चिकित्सालय परिसर के एक नीम के पेड़ पर फांसी पर लटका दिया। अमझेरा स्थित राणा बख्तावरसिंह के किले को मध्यप्रदेश सरकार ने राज्य संरक्षित इमारत घोषित किया है।
वीरांगना अवंतीबाई:
रानी अवंतीबाई लोधी भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली प्रथम महिला शहीद वीरांगना थीं। रानी अवंतीबाई का जन्म 16 अगस्त 1831 को सिवनी जिले के ग्राम मनकेड़ी के जमींदार जुझारसिंह लोधी के घर में हुआ था। उनका विवाह मण्डला जिले की रामगढ़ रियासत के राजा लक्ष्मण सिंह के पुत्र विक्रमजीत के साथ हुआ। उनके अमान सिंह और शेर सिंह नाम के दो पुत्र थे। राजा लक्ष्मण सिंह की मृत्यु के बाद ब्रिटिश सरकार ने विक्रमजीत को विक्षिप्त और अमान सिंह व शेर सिंह को नाबालिग घोषित कर शासन अपने हाथों में ले लिया। रानी ने अपना विरोध प्रकट कर वहॉं नियुक्त अंग्रेज अधिकारी को भगाकर शासन अपने हाथों में ले लिया। मार्च 1858 में रानी अंग्रेजों के साथ युद्ध करती हुईं वीरगति को प्राप्त हुईं। रानी अवंतीबाई को रामगढ़ की झॉंसी की रानी के नाम से भी जाना जाता है।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई:
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1835 को वाराणसी में हुआ। उनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम भागीरथी था। उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका व मनु था। उनका विवाह झॉसी के राजा गंगाधर राव के साथ हुआ। उनकी सहायिका का नाम झलकारी बाई था। ब्रिटिश सरकार ने राजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद उनके दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और झॉंसी को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। इसका विरोध करते हुए उन्होंने ब्रिटिश सरकार से युद्ध किया। वे सर ह्यूरोज से पराजित होकर कालपी पहूँची और तात्या टोपे से मिली। तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के क़िले पर क़ब्ज़ा कर लिया। 17-18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटे की सराय पर रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुईं। उनकी स्मृति में मध्यप्रदेश सरकार ने वीरांगना लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय सम्मान स्थापित किया है। रानी लक्ष्मीबाई की समाधि ग्वालियर में स्थित है।
वीरांगना झलकारी बाई:
झलकारी बाईका जन्म 22 नवंबर 1830 को झॉंसी के नकट भोजला गॉंव के एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। उनका विवाह रानी लक्ष्मीबाई के सैनिक पूरन सिंह के साथ हुआ था। झलकारी बाई रानी लक्ष्मीबाई की महिला शाखा दुर्गा दल में सेनापति के पद पर थीं। उन्होंने रानी के नेतृत्व में सेना का प्रतिनिधित्व किया।
तात्या टोपे:
तात्या टोपे जन्म 1814 ई. महाराष्ट्र में नासिक के निकट पटौदा जिले के येवला नामक गॉंव में हुआ था। उनके पिता का नाम पांडुरंग भट्ट (मावलेकर) और उनकी माता का नाम रुकमा बाई था। तात्या टोपे का वास्तविक नाम रामचंद्र पांडुरंग था। उन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में रानी लक्ष्मीबाई के साथ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 18 अप्रैल 1859 को शिवपुरी में तात्या टोपे को फांसी पर लटका दिया गया।
भीमा नायक:
भीमा नायक का जन्म 1840 ई. मे पश्चिमी निमाड़ी रियासत के मोहाली गॉंव में हुआ था। उन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेज़ों के विरुद्ध कड़ा संघर्ष किया। उनकी कर्मस्थली ग्राम धुआवा बावड़ी में उनका स्मारक बनाया गया है। उनकी मृत्यु 1876 में हुई थी।
जननायक टंट्या भील:
टंट्या भील का जन्म 1842 ई. में हुआ था।उनका वास्तविक नाम तांतिया भील था जिसे अंग्रेजों द्वारा टंट्या कर दिया गया। उन्हें टंट्या मामा से भी संबोधित किया जाता है। उन्हें निमाड़ का गौरव कहा जाता है। अंग्रेजों की सत्ता ने जननायक टंट्या को “इण्डियन रॉबिनहुड’’ का खिताब दिया था। आम मान्यता है कि उन्हें 4 दिसम्बर 1889 को फांसी दी गई। फांसी के बाद टंट्या के शव को इंदौर के निकट खण्डवा रेल मार्ग पर स्थित पातालपानी (कालापानी) रेल्वे स्टेशन के पास फेंक दिया गया था। वहां पर बनी हुई एक समाधि स्थल पर लकड़ी के पुतलों को टंट्या मामा की समाधि माना जाता है।
शहीद चंद्रशेखर आजाद:
चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को मध्यप्रदेश के अजीराजपुर जिले के भावरा ग्राम में हुआ था। उनका पूरा नाम चंद्रशेखर सीताराम तिवारी था। उनके पिता का नाम सीताराम तिवारी और माता का नाम जगरानी देवी था। उनके बचपन का नाम पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी था लेकिन पकड़े जाने पर न्यायालय में अपना नाम आजाद बताया। वे क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य बने। 09 अगस्त 1925 को उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में काकोरी काण्ड में रेल डकैती की घटना को अंजाम दिया। दिसंबर 1928 में लाहौर में उन्होंने भगत सिंह व राजगुरु के साथ मिलकर सॉण्डर्स का हत्या करके लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया एवं 1929 में दिल्ली पहुँच कर बटुकेश्वर दत्त के साथ असेम्बली बम काण्ड को अंजाम दिया। दिसंबर 1929 में उनके नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने दिल्ली के पास लार्ड इरविन की ट्रेन जलाने का प्रयास किया। 27 फरवरी 1931 में प्रयागराज (इलाहाबाद) के चंद्रशेखर आजाद पार्क (अल्फ्रेड पार्क) में पुलिस के साथ हुई गोलीबारी में उन्होंने खुद को गोली मारकर बलिदान दे दिया।
मध्यप्रदेश के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी व उनसे सम्बंधित स्थल
मध्यप्रदेश इतिहास की प्रमुख तिथियाँ
मध्यप्रदेश के इतिहास की क्रमवार सम्पूर्ण जानकारी –
1. मध्यप्रदेश इतिहास का प्रागैतिहास काल |
2. मध्यप्रदेश इतिहास का प्राचीन काल |
3. मध्यप्रदेश इतिहास का मध्य काल |
4. मध्यप्रदेश इतिहास का आधुनिक काल |
