मध्यप्रदेश का मध्यकालीन इतिहास | MPPSC, UPSC, PEB
मध्यकालीन इतिहास
गुलाम वंश: 1192 ई. के तराइन के युद्ध कें बाद मोहम्मद गौरी ने 1195-96 ई. में मध्यप्रदेश के ग्वालियर और मुरैना पर आक्रमण किये। गौरी के शासन काल में कुतुबद्दीन की महत्वपूर्ण विजय बुन्देलखण्ड की विजय थी। कुतुबद्दीन ऐबक ने बुन्देलखण्ड पर आक्रमण किया और चंदेल शासक परमर्दिदेव को परास्त कर कालिंजर, महोबा और खजुराहो पर अधिकार कर लिया।
मोहम्मद गौरी और ऐबक ने ग्वालियर के नरेश सुलक्षण पाल को हराया। उसने गौरी की अधीनता स्वीकार कर ली। सन् 1200 में ऐबक ने पुन: ग्वालियर पर आक्रमण किया। परिहारों ने ग्वालियर मुसलमानों को सौंप दिया। मालवा में पहला ऐबक का पहला धावा उज्जैन पर था। ऐबक की मृत्यु के बाद आरामशाह शासक बना।
आरामशाह के निर्बल शासन के दौरान हिन्दुओं ने अपनी सत्ता फिर जमा ली। प्रतिहारों ने ग्वालियर, चंदेलों ने कालिंजर व अजयगढ़ पर अपना अधिकार कर लिया। बिहार शासक विग्रह ने फिर से ग्वालियर पर अघिकार कर लिया। विग्रह के पुत्र मलयवर्मन ने झॉंसी और नरवर तक अपना क्षेत्र बढ़ा लिया।
आरामशाह के निधन के बाद इल्तुतमिश दिल्ली का सुल्तान बना। उस समय ग्वालियर दुर्ग पर प्रतिहारों का शासन था। इल्तुतमिश ने सन् 1231-32 में ग्वालियर के मंगलदेव को हराकर विदिशा, उज्जैन, कालिंजर, चंदेरी आदि पर भी विजय प्राप्त की। उसने भेलसा और ग्वालियर में मुस्लिम गवर्नर नियुक्त किए। इल्तुतमिश ने मांडू, ग्वालियर और मालवा की विजय प्राप्त की। उसने उज्जैन में महाकालेश्वर को लूटा।
खिलजी वंश: खिलजी वंश के संस्थापक जलालुद्दीन खिलजी थे। उसने मांडू को लूटा था। उसने ग्वालियर दुर्ग में एक गुंबद आकार का विश्राम गृह बनावाया था। जलालुद्दीन के शासन काल में अलाउद्दीन ने मालवा पर आक्रमण किया था। इस समय परमार राजा भोज द्वितीय का शासन था। इस आक्रमण में उसने भेलसा का दुर्ग जीता था।
अलाउद्दीन ने मानिकपुर के हाकिम के रूप में विदिशा और उज्जैन के मंदिरों को लूटा था। अलाउद्दीन ने देवगिरी का अभियान किया जिसके लिए वह मालवा से होकर ही गया। अलाउद्दीन खिलजी ने एन-उल-मुल्कमुल्तानी के नेतृत्व में मालवा के राजा मल्हकदेव को परास्त कर इस क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने उज्जैन, धारानगरी व चंदेरी आदि को भी जीता। अलाउद्दीन ने मांडू पर भी कब्जा किया।
अंतिम चंदेल शासक हम्मीरवर्मन के बाद दमोह तथा जबलपुर प्रदेश भी अलाउद्दीन के अधीन हो गया। यह बात दमोह के सलैया ग्राम से प्राप्त शिलालेख से स्पष्ट है। शिलालेख में अलाउद्दीन खिलजी को सार्वभौम शासक कहा गया है।
तुगलक वंश: 1324 ई. के बटियागढ़ अभिलेख से स्पष्ट है कि इस काल में गयासुद्दीन तुगलक का आधिपत्य दमोह क्षेत्र में था। यह अभिलेख फारसी भाषा में है। अभिलेख के अनुसार उसने दमोह में एक महल बनावाया था। राजकुमार जूना खां (मोहम्मद तुगलक) ने इसी समय चंदेरी और मालवा पर पूर्ण आधिपत्य स्थापित किया था। 1328 ई. के एक अन्य बटियागढ़ अभिलेख (संस्कृत भाषा) से जानकरी मिलती है कि उस काल में दमोह क्षेत्र में सुल्तान महमूद अर्थात् मोहम्मद तुगलक का राज्य था। इस अभिलेख के अनुसार उसने बटियागढ़ में गो-मठ, एक बावड़ी, और एक बगीचा बनवाया था। फिरोज तुगलक का वर्णन दुलनीपुर(सागर) अभिलेख है।
मालवा की स्वतंत्र सल्तनत: दिल्ली सल्तनत के अधीन मालवा के इतिहास को अंधकारमय युग के नाम से जाना जाता है। तुगलक वंश के पतन के दौरान तुगलक गर्वनर दिलावर खॉं गोरी मध्यप्रदेश में मालवा की स्वतंत्र सल्तनत की स्थापना की। उन्होंने धार को अपनी राजधानी बनाया। और बाद में इसे मांडू स्थानांतरित कर दिया गया। दिलावर खॉं गोरी का वास्तविक नाम हुसैन था। वह कला का प्रेमी था। उसे मालवा में मध्ययुगीन मुस्लिम स्थापत्यकला का संस्थापक माना जाता है।
दिलावर खॉं के बाद उसका पुत्र अल्प खॉं अर्थात् होशंगशाह शासक बना। इसने अपनी राजधानी मांडू को बनाया। मांडू का नाम बदलकर शादियाबाद (आनंद का शहर) कर दिया गया। होशंगशाह ने ही नर्मदा होशंगाबाद नगर बसाया। होशंगशाह के शासन काल में चंदेरी मे दिल्ली दरवाजा का निर्माण करवाया। इस वंश का समाप्त कर महमूद खिलजी ने मालवा में एक नए खिलजी वंश की स्थापना की। वर्तमान में मांडू में जो होशंगशाह का मकबरा है, उसे महमूद खिलजी ने बनवाया था। महमूद खिलजी ने माण्डू मे सात मजिलों वाला स्तंभ बनाया।
निमाड़ में फ़ारुकी शासन: वतर्मान बुरहानपुर जिले का क्षेत्र खानदेश के फ़ारुकी सुल्तानों के अंतर्गत रहा है। बुरहानपुर खानदेश की सल्तनत की राजधानी थी। असीरगढ़ का किला इस सल्तनत का सबसे महत्वपूर्ण और सुरक्षित किला रहा है। असीरगढ़ के किले को दक्खिन के रास्ते का फहरुआ माना जाता है। दिल्ली के सुल्तान फिरोज तुगलक के समय मलिक अहमद राजा को थालनेर और करोंदा के जिले सौंपे गये थे। बाद में उसे खानदेश का सिपहसालार बना दिया। 1398 ई. में मलिक राजा ने स्वयं को दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र घोषित कर दिया।
मलिक अहमद राजा ने अपने बेटे मलिक नासिर को उत्तराधिकारी बनाया। मलिक नासिर ने आसा अहीर से छल करके असीरगढ़ पर कब्जा कर उसे मुख्यालय बना लिया। मलिक नासिर ने ताप्ती नदी के दायें किनारे पर हजरत शेख बुरहानुद्दीन के नाम पर बुरहानपुर और बायें किनारे पर हजरत शेख जैनुद्दीन के नाम पर जैनाबाद नामक नगर बसाया। मीरन आदिल खान, मीरन मुबारकखान, दाउद खान, गजनी खान, आलमखान, अहमदशाह आदि इस समय के प्रमुख शासक थे। मीर आदिलखान द्वितीय ने असीरगढ़ के किले के आसपास मालीगढ़ की चहारदीवारी का निर्माण और बुरहानपुर में किले का निर्माण करवाया। मीरन आदिलखान द्वितीय को बुरहानपुर के दौलत-ए-मैदान में दफनाया गया।
मालवा के सुलतान बाज बहादुर ने मुगल सेना के आदम खॉं से पराजित होकर बुरहानपुर के फारुकी दरबार में शरण ली थी। राजा अलीखान ने बुरहानपुर में जामा मस्जिद बनवाई जिसमें दो शिलालेख हैं जिसमें एक अरबी और एक संस्कृत भाषा में है।
गढ़ा का गोंड राज्य: गढ़ा में ने गोंडों ने अपने इस राज्य की स्थापना की। उन्होंने जबलपुर और महाकौशल क्षेत्र अपने अधीन किए। समय समय पर यह राज्य गढ़ा, गढ़ कटंगा(अकबरनामा के अनुसार), गढ़ मंडला के नाम से प्रसिद्ध रहा है। गोंडों की शाखा ने गढ़कटंगा को अपनी राजधानी बनाया। मुस्लिम इतिहासकारों ने इनके राज्य का नाम गोंडवाना बताया है। यादवराय इस वंश का संस्थापक था। संग्रामशाह इस वंश का महान शासक था, जिसके सिक्कों में उसे पुलत्स्यवंशी कहा गया है। इसके अधीन 52 गढ़ थे।
गोंड स्वयं को रावण वंशी भी कहते हैं। संग्रामशाह के दो बेटे, दलपतिशाह और चंद्रशाह, थे। दलपतिशाह का विवाह महोबा के चंदेल राजा सालवाहन की पुत्री दुर्गावती से हुआ। संग्रामशाह की मृत्यु के बाद दलपतिशाह शासक बना। दलपतिशाह की असामयिक मृत्यु के बाद दुर्गावती ने राज्य पर शासन किया। इस वंश को सर्वाधिक कीर्ति रानी दुर्गावती के कारण मिली। मुगल सम्राट अकबर ने आसफ खॉं के नेतृत्व में गोंडवाना पर आक्रमण किया, जिसमें रानी दुर्गावती (गोंडवाना) की पराजय हुई। दुर्गावती ने अपने सतीत्व की रक्षा करने हेतु आत्महत्या कर ली थी। दुर्गावती की समाधि बरेला में बनी है।
अकबर की विजय के उपरांत गोण्डवाना दलपतिशाह के भाई चन्द्रशाह को गढ़ा राज्य का शासक बना दिया। चन्द्रशाह के बाद उसका छोटा पुत्र मधुकर शाह शासक बना। मधुकर शाह के बाद प्रेमशाह गढ़ा का राजा बना। हृदयशाह प्रेमशाह का उत्तराधिकारी बना। हृदयशाह ने मण्डला के निकट हरखूखेड़ा ग्राम में हृदयनगर बसाया। हृदयशाह ने रामनगर में अपनी राजधानी बनाई। हृदयशाह के छत्रशाह और हरिसिंह नाम के दो पुत्र थे। हृदयशाह का उत्तराधिकारी उसका पुत्र छत्रशाह बना। छत्रशाह के बाद नरेन्द्रशाह शासक बना, जिसने राजधानी रामनगर से हटाकर मण्डला स्थानांतरित की तो यह राज्य गढ़ा मण्डला के नाम से जाना जाने लगा।
नरेन्द्रशाह के बाद महराजशाह, शिवराजशाह, निजामशाह, दासीपुत्र महीपाल सिंह, नरहरिशाह, शासक बने। नरहरिशाह के कैद कैद हो जाने के बाद सुमेरशाह सत्तारूढ़ हुआ। सुमेर शाह ने लगभग ढ़ाई साल शासन किया। नरहरिशाह सुमेरशाह को अपदस्थ करके पुन: गद्दी पर बैठा। उसने दमोह के तेजगढ़ नामक स्थान पर मराठों के विरुद्ध युद्ध किया जिसमें उसकी पराजय हुई और गढ़ा मण्डला राज्य पर मराठों का अधिकार हो गया।
देवगढ़ का गोंड राज्य: मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में छिंदवाड़ा से लगभग 40 किमी दूर पहाड़ी पर देवगढ़ के किले खण्डहर स्थित हैं। पूर्व में देवगढ़ राज्य गढ़ा मण्डला के गोंड राज्य के अधीन था। गढ़ा राज्य पर मुगल बादशाह अकबर की विजय के बाद यह गढ़ा राज्य के साथ मुगल साम्राज्य का हिस्सा बन गया। देवगढ़ राज्य के प्रारंभिक राजाओं के एक पारंपरिक विवरण 1864 ई. में प्राप्त दस्तावेज के अनुसार इस वंश की शुरुआत महाभारतकालीन राजा विचित्रवीर्य से मानी गई है। दूसरे पारंपरिक विवरण के अनुसार पहले देवगढ़ का राज्य गवली लोगों के पास था। गढ़ा के शासक सान्डबाशाह ने गवली राजा को मारकर राज्य पर अपना अधिकार कर लिया और उसके वंशज ही देवगढ़ के राजा बने।
तीसरे पारंपरिक विवरण के अनुसार जाटबा नामक व्यक्ति ने अपने स्वामी देवगढ़ के राजाओं रनसूर और घनसूर की हत्या कर देवगढ़ की राजगद्दी प्राप्त की। जाटबा देवगढ़ का पहला ऐसा शासक था जिसका उल्लेख इतिहास में मिलता है। देवगढ़ के शासक के रूप में जाटबा का वर्णन अकबरनामा और आइन-ए-अकबरी दोनों में मिलता है।
जाटबा के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र दलशाह उसका उत्तराधिकारी बना। दलशाह के बाद कोकशाह देवगढ़ का राजा बना। कोकशाह की मृत्यू के बाद उसका पुत्र केसरीशाह ने गद्दी संभाली। केसरीशाह ने जाटबा द्वितीय की पदवी धारण की। गोरखशाह केसरीशाह का उत्तराधिकारी बना और उसने कोकशाह द्वितीय की उपाधि धारण की। गोरखशाह का बेटा गोरखशाह को अपदस्थ कर धर्मपरिवर्तन के बाद शासक बना। उसने धर्मपरिवर्तन के बाद इस्लामयार खान नाम रखा। इस्लामयार खान की मृत्यु के बाद उसका भाई दींदर खान देवगढ़ का शासक बना। दींदर खान के बड़े भाई महीपतशाह ने औरंगजेब से मिलकर इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया और अपना नाम बदलकर बख्तबुलंद रख लिया। परिणमस्वरूप औरंगजेब ने उसे देवगढ़ उर्फ इस्लामगढ़ की जमींदारी प्रदान की।
1691 ई. में मुगल सम्राट ने बख्तबुलन्द को हटाकर पुन: दींदर खान को देवगढ़ का राजा बना दिया। आगे चलकर औरंगजेब ने नेकनाम खान (कानसिंग) को देवगढ़ का शासक बना दिया। 1698 ई. में बख्तबुलन्द ने नेकनाम को देवगढ़ से खदेड़ दिया। बख्तबुलन्द की सलाह पर राजखान ने अम्बागढ़ में एक किले की स्थापना करवाई। राजखान पठान के एक वंशज मुहम्मद अमीर खान ने सिवनी शहर की स्थापना की। आगे चलकर चॉंद सुल्तान व वलीशाह शासक बने। 1738 ई. में बुरहानशाह और अकबरशाह को नागपुर में संयुक्त रूप से देवगढ़ राज्य के सिंहासन पर बैठाया। 1743 ई. में रघुजी भोंसला ने नागपुर का शासन और फिर देवगढ़ व सिवनी का शासन अपने अधिकार में ले लिया। नागपुर के गोंड स्वयं को देवगढ़ के संस्थानिक कहते थे।
खेरला राज्य: खेरला का किला मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में स्थित है। नरसिंहराय इस राज्य का सबसे प्रतापी राजा था। इतिहासकार फरिश्ता की कृति तारीख-ए-फरिश्ता में खेरला राज्य का प्रमाणिक उल्लेख है। नरसिंहराय ने अपने दो बेटों चाँदजी और खेमजी को होशंगशाह के गागरौन अभियान में भाग लेने के भेजा था। होशंगशाह ने 1425-26 ई. में खेरला पर दो पर आक्रमण किया। 1428-29 ई. में तीसरी बार खेरला पर आक्रमण किया जिसमें वह बुरी तरह पराजित होकर माण्डू भाग गया। होशंगशाह की हार के पश्चात् नरसिंहराय ने अहमदशाह की अधीनता स्वीकार कर ली। 1433 ई. में खेरला पर पुन: आक्रमण किया जिसमें नरसिंहराय मारा गया और होशंगशाह ने खेरला राज्य को अपनी सल्तनत में शामिल कर लिया।
मुगल काल: मुगल संस्थापक बाबर ने 1528 ई. में चंदेरी के राजा मेदिनीराय को हराकर चंदेरी पर अपना अधिकार कर लिया। इस युद्ध में बाबर ने मेदिनीराय की हत्या कर दी थी। बाबर ने मेदिनीराय की पुत्रियों का विवाह हुमायूँ और कामरान के साथ कर दिया। बाबर ने खानवा के युद्ध में राणा सांगा को हराकर मालवा पर अधिकार कर लिया था। कालिंजर का दृढ़ दुर्ग भी मुगलों अधीन हो गया था। बाबर की मृत्यु के बाद हुमायूँ सम्राट बना। उसने संपूर्ण मालवा को जीत कर मुगल साम्राज्य में मिला लिया। कन्नौज के विलग्राम के युद्ध में शेरशाह ने मुगल सम्राट हुमायूँ को पराजित कर इस राज्य के माण्डू, उज्जैन, सारंगपुर आदि क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया।
शेरशाह ने बुंदेलखंड के कालिंजर किले पर आक्रमण किया जिसमें बारूद फटने से वह मारा गया। यह किला उस समय कीरत सिंह के कब्जे में था। 1561 ई. में मुगल सम्राट अकबर ने आदम खॉं के नेतृत्व में मालवा के शासक बाज बहादुर पर आक्रमण किया जिसमें बाज बहादुर की पराजय हुई। 1569 ई. में अकबर ने कालिंजर के किले पर अपना आधिपत्य कर लिया, उस समय यह किला राजा रामचंद्र के अधीन था। 1601 ई. में अकबर ने स्वयं असीरगढ़ के किले पर अपना अधिकृत किया।
औरंगजेब की धार्मिक नीति के कारण बुन्देलखण्ड व मालवा में विद्रोह हुए। ओरछा के राजा चम्पतराय ने औरंगजेब का विद्रोह किया। उसने 1661 ई. में मुगल आधिपत्य स्वीकार करने के बजाय आत्महत्या करना उचित समझा। इसके बाद उसके पुत्र छत्रसाल ने विद्रोह जारी रखा। छत्रसाल ने मराठों से संधि की। उसने पेशवा बाजीराव की सहायता से मुगल सूबेदार बंगश को पराजित किया। इस युद्ध में बंगश को स्त्री वेश धारण कर भागना पड़ा। अंत में औरंगजेब ने छत्रसाल से संधि की। औरंगजेब की मृत्यु के बाद छत्रसाल बुंदेलखण्ड का एक स्वतंत्र शासक बन गया।
छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव को अपना तृतीय पुत्र मानकर सागर, दमोह, जबलपुर, धामोनी, शाहगढ़, खिमलासा और गुना, ग्वालियर के क्षेत्र प्रदान किए। यहॉं से प्रदेश में मराठों का प्रवेश शुरू हुआ।
बघेलखण्ड: बघेलखण्ड का संबंध अति प्राचीन भारतीय संस्कृति से रहा है। यह भू-भाग रामायण काल में कोसल प्रान्त के अंतर्गत था और महाभारत काल में विराटनगर बघेलखण्ड की भूमि पर था जिसे आजकल सोहागपुर के नाम से जाना जाता है। मध्यप्रदेश में बघेलखण्ड की नींव व्याघ्रदेव के पुत्र कर्णदेव ने डाली। बघेल राज्य क्षेत्र का नाम भथा है, जो वर्तमान में रीवा के नाम से जाना जाता है। इस राज्य के शासक वीरभान ने हुमायूं की चौसा पराजय के बाद मदद की थी।
तानसेन राजा रामचंद्र के दरबार में गायक था, जिसे अकबर के दूत जलालखां ने अकबर के दरबार में पहुँचाया था। मार्तण्ड सिंह भथा राज्य के अंतिम शासक थे।
मध्यकालीन बुन्देलखण्ड: बुन्देला ठाकुरों का उद्भव अयोध्या के राजा राम के पुत्र लव के वंश से माना जाता है। गहिरवार वंश के पंचम बुन्देला के पुत्र वीर बुन्देला ने मऊ-माहोनी में अपनी नवीन राजधानी स्थापित कर बुन्देलखण्ड में अपना राज्य स्थापित किया। अधिकांश विद्वानों का मत है कि बुन्देला ठाकुर विन्ध्य क्षेत्र के भू-भाग में राज्य स्थापित करने के कारण इसका नाम विन्ध्येला और बाद में बुन्देला नाम से प्रसिद्ध हुआ। ऐसी मान्यता है कि 14वीं सदी के अंत से इस भू-भाग का नाम जेजाकभुक्ति से बदलकर बुन्देलखण्ड पड़ा।
वीर बुन्देला के नाती अर्जुन पाल के तीन पुत्र थे – वीरपाल, सोहनपाल और दयापाल। अर्जुनपाल की मृत्यु के बाद उसका पुत्र वीरपाल बुन्देलखण्ड की तत्कालीन राजधानी मऊ-माहोनी का राजा बना। सोहनपाल के उत्तरराधिकारी सहजेन्द्र, नानकदेव, पृथ्वीराज, रामचन्द, मेदनीमल, अर्जुनदेव और मलखानसिंह बुन्देला अपना राज्य गढ़कुड़ार से चलाते थे। मलखान सिंह के निधन के बाद रुद्रप्रताप बुन्देला उसका उत्तराधिकारी बना। उसने बुन्देला की नई राजधानी ओरछा की नींव रखी। भारतीचंद के काल में ओरछा का दुर्ग, परकोटा, राजमंदिर, रानीमहल, और शहरपनाह का निर्माण हुआ।
इस्लामशाह सूर ने जतारा (टीकमगढ़ जिले की तहसील) का विभाजन कर इसका नाम बदलकर इस्लामाबाद कर दिया। भारतीचंद ने पुन: जतारा पर कब्जा कर उसका नाम फिर से जतारा प्रचलित किया। भारतीचंद के पश्चात् उसका भाई मधुकरशाह ओरछा के सिंहासन पर बैठा। मधुकरशाह और उनकी रानी गणेशकुँअरि दोनों धार्मिक प्रवृत्ति के थे और वे अपने माथे पर तिलक लगाते थे। ये तिलक मधुकरशाही तिलक के नाम से विख्यात हुआ। मधुकरशाह के पश्चात् उनका ज्येष्ठ पुत्र रामशाह बुन्देला ओरछा का शासक बना। मधुकरशाह के एक पुत्र वीरसिंहदेव बुन्देला को दतिया जिले में स्थित छोटी बड़ोनी की जागीर मिली। वहॉं से वीरसिंहदेव ने आसपास के ग्वालियर, नरवर, पवाया, करहरा आदि के मुगल क्षेत्रों में कब्जा कर लिया।
अकबर के विद्रोही पुत्र शहजादा सलीम के कहने पर वीरसिंहदेव ने अकबर के विशिष्ट मंत्री अबुल फज़ल की हत्या कर दी। सलीम जहॉंगीर बादशाह के नाम से गद्दी पर बैठा। सलीम ने वीरसिंहदेव को ओरछा की गद्दी सौंप पुरा बुन्देलखण्ड राज्य उसे दे दिया। वीरसिंहदेव के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र जुझारसिंह बुन्देला ओरछा के सिंहासन पर बैठा। जुझारसिंह की मृत्यु के बाद मुगल बादशाह शाहजहॉं ने चंदेरी के शासक देवीसिंह बुन्देला को ओरछा राज्य सौंप दिया। ओरछा की विद्रोही जनता पर काबू न पाने के कारण शाहजहॉं ने देवीसिंह बुन्देला को हटाकर वीरसिंहदेव के द्वितीय पुत्र पहाड़सिंह को ओरछा का शासक बनाया। पहाड़सिंह के बाद सुजानसिंह, इन्द्रमणि (सुजानसिंह का भाई), यशवंतसिंह, भगवंत सिंह, उदोतसिंह, पृथ्वीसिंह, सावंतसिंह, मानसिंह, भारतीचन्द्र, विक्रमाजीत विजय बहादुर ओरछा के शासक बने।
चन्देरी राज्य: चन्देरी ओरछा के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। वर्तमान में यह अशोकनगर जिले में स्थित है। यह महाभारत काल में शिशुपाल के चेदि राज्य का भाग था। प्रतिहार राजवंश के वंशज कीर्तिपाल ने 10-11 वीं शताब्दी में चंदेरी की स्थापना की और अपने राज्य की राजधानी बनाया। प्रतिहार वंश के समाप्त होने के बाद जेजाक भुक्ति ने भी यहॉं शासन किया। 1304 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने चन्देरी सहित समस्त मालवा को अपने अधिकार में किया था। 1400 ई. तक चन्देरी पर दिल्ली का अधिकार था। बाद में दिलावर खॉं ने स्वयं को सुल्तान घोषित कर मालवा प्रांत को दिल्ली से अलग कर लिया।
होशंगशाह के शासन काल में चंदेरी मे दिल्ली दरवाजा का निर्माण करवाया। 1528 ई. में चंदेरी के राजा मेदिनीराय को हराकर मुगल सम्राट बाबर ने चंदेरी पर अपना अधिकार कर लिया था। मुगल बादशाह जहॉंगीर ने वीरसिंह बुन्देला को ओरछा की गद्दी सौंप उनके अग्रज रामशाह बुन्देला को बार-चंदेरी का शासक बना दिया। रामशाह बुन्देला की मृत्यु के बाद संग्रामशाह के पुत्र भरतशाह बुन्देला को बार-चंदेरी का शासक बनाया गया। भरतशाह के बाद देवीसिंह, दुर्गसिंह, दुर्जनसिंह, मानसिंह, अनुरुद्धसिंह, रामचन्द्र, प्रजापाल और मोर प्रहलाद चंदेरी के शासक बने। 1810 ई. में ग्वालियर के सिंधिया के फ्रेंच कमांडर जीन बेपिस्ट ने चन्देरी पर आक्रमण कर चंदेरी के दो-तिहाई भू-भाग पर अधिकार कर लिया। 1813 ई. में चंदेरी पर सिंधिया वंश का कब्जा हो गया।
दतिया राज्य: ओरछा के शासक वीरसिंह ने अपने पुत्र भगवानदास बुन्देला को बड़ौनी-दतिया की जागीर प्रदान की थी। 16 वीं सदी में दतिया के बुन्देला शासकों ने कूटनीति का सहारा लेते हुए मुगल सत्ता के संरक्षण में बुन्देलखण्ड के पश्चिमी भाग में दतिया राज्य स्थापित कर लिया। दतिया के प्रथम शासक भगवानदास भगवानराव के नाम से विख्यात हुए थे। भगवान राव के पुत्र शुभकरन बुन्देला को दतिया के शासक के रूप में बन्देलखण्ड का सबसे प्रभावशाली मनसबदार माना जाता था। कवि गोरेलाल ने अपनी पुस्तक छत्रप्रकाश में शुभकरन का मुगल सूबेदारों के बीच प्रमुख सेनापति के रूप में वर्णन किया गया है।
इतिहासकार भीमसिंह सक्सेना ने अपने ग्रंथ तारीख-ए-दिलकुशा में शुभकरन की वीरता और संगठन क्षमता का वर्णन किया है। प्रतापसिंह उर्फ दलपतराव बुन्देला दतिया राज्य का सर्वाधिक प्रसिद्ध राजा हुआ। दलपतिराव ने दतिया में एक विशाल दुर्ग प्रतापगढ़ का निर्माण करवाया था। दलपतराव के निधन के बाद रामचन्द्र बुन्देला दतिया की गद्दी पर बैठा। रामचन्द्र का एक भाई पृथ्वी सिंह बुंदेला दतिया राज्य में सेंवढ़ा में स्वतंत्र जागीरदार बन गया था।
पृथ्वी सिंह बुन्देला हिन्दी साहित्य के इतिहास में रसनिधि के नाम से प्रसिद्ध है। रामचन्द्र को औरंगजेब ने सतारा दुर्ग का किलेदार बनाया था। रामचन्द्र बुन्देल के बाद राजा इन्द्रजीत दतिया की गद्दी पर बैठा। झॉंसी के सूबेदार नारोशंकर ने दतिया पर आक्रमण कर दबोह और भाण्डेर क्षेत्र छीन लिया था। इन्द्रजीत बुन्देला ने ऐरच और करहरा के क्षेत्र स्थायी रूप से मराठों को दे दिए। इन्द्रजीत के बाद शत्रुजीत सिंहासन पर बैठा। शत्रुजीत के बाद परीछत दतिया का शासक बना। पारीछत ने अंग्रेजों से संधि कर ली।
पन्ना रियासत: बुंदेलखण्ड की रियासत के रूप में बुंदेला नरेश छत्रशाल द्वारा पन्ना को राजधानी बनाया गया। बुंदेलखण्ड के इतिहास में छत्रसाल बुंदेला ‘महाबली’ और ‘महाराजाधिराज, छत्रसाल बुंदेला’ के नाम से विख्यात हुए। छत्रसाल के मृत्यु के बाद हृदयशाह ने पन्ना की गद्दी संभाली। हृदयशाह के बाद सुभागसिंह (सभा सिंह), अमानसिंह, हिन्दूपत, अनिरुद्ध सिंह, धोकल सिंह और किशोर सिंह पन्ना के शासक हुए।
ओरछा रियासत: इसकी स्थापना 16वीं शताब्दी में बेतवा नदी के तट पर बुंदेला शासक रुद्रप्रताप सिंह ने की थी। रुद्रप्रताप के बाद उसका पुत्र भारतीचंद ओरछा की गद्दी पर बैठा। भारतीचंद के बाद मधुकर शाह, वीरसिंह बुंदेला, जुझारसिंह ओरछा के सिंहासन पर बैठे। जुझारसिंह की मृत्यु के बाद मुगल बादशाह शाहजहॉं ने चंदेरी के शासक देवीसिंह बुन्देला को ओरछा राज्य सौंप दिया। ओरछा की विद्रोही जनता पर काबू न पाने के कारण शाहजहॉं ने देवीसिंह बुन्देला को हटाकर वीरसिंहदेव के द्वितीय पुत्र पहाड़सिंह को ओरछा का शासक बनाया।
पहाड़सिंह के बाद सुजानसिंह, इन्द्रमणि (सुजानसिंह का भाई), यशवंतसिंह, भगवंत सिंह, उदोतसिंह, पृथ्वीसिंह, सावंतसिंह, मानसिंह, भारतीचन्द्र, विक्रमाजीत विजय बहादुर ओरछा के शासक बने। पृथ्वीसिंह ने ओरछा के समीप पृथ्वीपुर नामक दुर्ग का निर्माण करवाया था। मुगल बादशाह आलमशाह (शाहआलम) ने सावंत सिंह को महेन्द्र की उपाधि से विभूषित किया था। विक्रमाजीत सिंह ने ओरछा रियासत की राजधानी ओरछा से बदलकर टेहरी को बनाया। बाद में टेहरी का नाम बदलकर टीकमगढ़ कर दिया गया। ओरछा के सैनिक और बाघाट के बीच बाघाट का युद्ध हुआ।
मध्यप्रदेश के इतिहास की क्रमवार सम्पूर्ण जानकारी –
1. मध्यप्रदेश इतिहास का प्रागैतिहास काल |
2. मध्यप्रदेश इतिहास का प्राचीन काल |
3. मध्यप्रदेश इतिहास का मध्य काल |
4. मध्यप्रदेश इतिहास का आधुनिक काल |