मध्यप्रदेश का इतिहास | History of MP | MPPSC ,UPSC, PEB
मध्यप्रदेश का इतिहास
**प्रागैतिहास |
**प्राचीन |
**मध्य |
**आधुनिक |
प्रागैतिहास
अत्यंत प्राचीन अतीत यानी बीते हुए काल को, जिसके लिए न तो कोई पुस्तक और न ही कोई लिखित दस्तावेज उपलब्ध हैं, उसे प्राक् इतिहास कहा जाता है। इस आरंभिक प्रागैतिहासिक काल को पाषाण काल भी कहा जाता है। ताम्र पाषाण काल भी इसके अंतर्गत आता है।
प्रमुख स्थल:
आदमगढ़: आदमगढ़ होशंगाबाद के नर्मदा तट पर स्थित है। यह मध्यपाषाणकालीन है और प्रागैतिहासिक मानव की क्रीड़ास्थली रहा है। शैलाश्रय व गुफा शैल चित्र यहां की मुख्य विशेषता है। 1964 ई. में आर.बी. जोशी ने ‘आदमगढ़ शैलाश्रय’ में लगभग 25 हजार लघु उपकरण प्राप्त किये। मध्यप्रदेश में सबसे प्राचीनतम सभ्यता के प्रमाण भी आदमगढ़ से मिलते हैं।
भीमबेटका: विन्ध्य पर्वतमालाओं के उत्तरी छोर से घिरा भीमबेटका भोपाल से लगभग 40 किमी दूर दक्षिण में स्थित है। यह रायसेन जिले में स्थित है। यह लगभग 10 किमी ल्रबा एवं 4 किमी चौड़ाई में फैला हुआ है। यह विश्व का सबसे बड़ा गुफा समूह है। ऐसा माना जाता है कि यह स्थान महाभारत के चरित्र भीम से संबंधित है और इसी से इनका नाम भीमबेटका पड़ा।
भीमबेटका शैलाश्रय तथा उनमें उपलब्ध शैल चित्र की खोज का श्रेय प्रसिद्ध पुरातत्वविद् स्व. डॉ. विष्णुधर वाकणकर को जाता है। उन्होंने इस स्थल की खोज वर्ष 1957-58 में की थी। भीमबेटका की 500 से अधिक गुफाओं में लाखों साल पहले गुफावासियों के रोजमर्रा का जीवन दर्शाते शैल चित्र हैं। भीमबेटका में आखेट, युद्ध, पशु-पक्षी, धार्मिक और व्यक्ति चित्रों का अंकन है। अंकित चित्रों का संबंध पान्डवों के अज्ञातवास से जोड़ा जाता है। वर्ष 2003 में यूनेस्को द्वारा भीमबेटका की गुफा को विश्वधरोहर घोषित किया गया है।
कायथा: यह पुरातत्व स्थल उज्जैन जिले की तराना तहसील में कालीसिंध नदी के किनारे स्थित है। इसे पहली ताम्रपाषाण बस्ती माना जाता है। यह स्थान ताम्रपाषाणकालीन सभ्यता के प्रमाण प्राप्ति का मुख्य स्थल है। यह वराह मिहिर की जन्मभूमि माना जाता है। कायथा (कापिस्थ) की खोज का श्रेय विष्णु श्रीधर वाकणकर को जाता है। 1965-66 में श्री वाकणकर के नेतृत्व में विक्रम विश्वविद्यालय के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग द्वारा कायथा में उत्खनन कार्य प्रारंभ करवाया। यहॉं लाल मृदभान्डों पर काले रंग के चित्र मौजूद हैं। इस काल के लोग जिन भान्डों का प्रयोग करते थे, उन्हें ‘मालवा भान्ड’ कहा जाता है।
एरण: जनरल कनिंघम ने सर्वप्रथम प्राचीन एरिकिण नगर की पहचान एरण से की। एरण प्रदेश के सागर जिले में बेतवा की सहायक नदी बीना से घिरा हुआ है। एक मत के अनुसार यहॉं बहुतायत मात्रा में पायी जाने वाले रईरक या ईरण नामक घास के कारण इसका नाम ऐसा पड़ा। कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि एरण के सिक्कों पर नाग का चित्र है, अत: इस स्थान का नामकरण ऐराका नाग से हुआ है। एरण से ताम्र पाषाणकालीन सभ्यता के साथ प्रथम सती प्रथा का अभिललेख (510 ई.) प्राप्त हुआ है। यहॉं से प्राप्त मुख्य अभिलेख निम्नानुसार है:-
अभिलेख | वंश |
श्रीधर वर्मा का अभिलेख | शक शासक |
समुद्रगुप्त का अभिलेख | गुप्त सम्राट |
बुधगुप्त का अभिलेख | गुप्त सम्राट |
तोरभाण का अभिलेख | हूण शासक |
भानुगुप्त का अभिलेख | गुप्त सम्राट (गोपराज सती स्तंभ अभिलेख या प्रथम सती अभिलेख) |
नवदाटोली: खरगोन जिले के महेश्वर में नवदाटोली स्थान से ताम्रपाषाण कलीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं । यह नर्मदा तट पर स्थित है। यह स्थान एच. डी. सांकलिया के निर्देशन में उत्खनित करवाया गया था।
आँवरा: यह स्थान मन्दसौर जिले में स्थित है। मध्यप्रदेश पुरातत्व विभाग के त्रिवेदी के द्वारा यहॉं उत्खनन करवाया गया है। यहॉं पाषाण से लेकर गुप्त काल तक के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
डॉंगवाला: यह ताम्रपाषाण कालीन बस्ती उज्जैन जिले में स्थित है। यहॉं से 1800 ई.पू. के मृदभांड मिले हैं।
नागदा: यह स्थान उज्जैन के निकट चंबल नदी के किनारे बसा हुआ है। इस स्थान से ताम्रपाषाणयुगीन प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
अन्य स्थल: खेड़ीनामा, बेसनगर, उज्जैन, महेश्वर, शाजापुर, इन्दौर, प. निमाड़, धार, जबलपुर, भिण्ड में 30 से अधिक ताम्रपाषाणिक बस्तियों के साक्ष्य मिले हैं।
प्राचीन इतिहास
यह काल वैदिक युग के आसपस शुरू होता है। इतिहासकार बैवर के मत से आर्यों को नर्मदा और उसके प्रदेश की जानकारी थी। महर्षि अगस्त्य के नेतृत्व में यादवों का एक कबीला इस क्षेत्र में आकर बस गया। इस तरह इस क्षेत्र का आर्यीकरण प्रारंभ हुआ।
महापाषाण युग: महापाषाण (मेगालिथ) ऐसे बड़े पत्थर या शिला को कहते हैं जिसका प्रयोग किसी स्तंभ, स्मारक या अन्य निर्माण के लिए किया हो। महापाषाण संस्कृति के अन्तर्गत कब्रों पर बड़े बड़े पत्थर रखे जाते थे। मध्यप्रदेश के सिवनी और रीवा जिलों में महापाषाणिक स्मारक उत्खनित किए गए हैं।
वैदिक युग: ऋग्वैदिक काल में आर्य संस्कृति उत्तर तक सीमित थी। उत्तर वैदिक समय में ही उसने विंध्याचल को पार कर मध्यप्रदेश में कदम रखा। ऐतरेय ब्राम्हण में निषाद जाति का वर्णन है वह मध्यप्रदेश के जंगल में निवास करती थी।
प्रमुख वंश:
कारूष वंश: अनुश्रुति अनुसार मनु के पुत्र कारूष के नाम पर इस वंश का नाम कारूष पड़ा। कारूष ने कारूष क्षेत्र (वर्तमान बघेलखण्ड) में शासन किया।
चन्द्रवंश: इसे ऐल साम्राज्य भी कहा गया है। मनु वैवस्वत की पुत्री इला का विवाह सोम(चन्द्र) से हुआ था। इनके राज्य का नाम ऐल साम्राज्य हुआ जिसका आदि पुरूष सोम ही था। सोम का खेत्र बुंदेलखण्ड था। सोम के आयु और अमावसु नाम के पुत्र हुए। आयु की तीसरी पीढ़ी में ययाति नाम का चंद्रवंशी राजा हुआ जिसका विवाह शुक्र भार्गव ऋषि की कन्या देवयानी से हुआ। ययाति ने अपना ऐल साम्राज्य पांच पुत्रों मे बांट दिया। इस विभाजन में यदु को चर्मणवती(चम्बल), नेत्रवती(बेतवा), और शुक्तिमती(केन) का क्षेत्र प्राप्त हुआ और उसके नाम पर यदु या यादव वंश की स्थापना हुई।
इक्ष्वाकु वंश: मनु के एक पुत्र इक्ष्वाकु के नाम पर इस वंश का नाम इक्ष्वाकु पड़ा। पौरणिक जनश्रुतियों के अनुसार कारकोट नागवंशी शासक नर्मदा के काठे के शासक थे। मौनेय गंधर्वों से जब उनका संघर्ष हुआ तो अयोध्या के इक्ष्वाकु नरेश मांधाता ने अपने पुत्र पुरूकुत्स का नागों की सहायता के लिए भेजा। पुरूकुत्स ने गंधर्वों को पराजित किया।
इस विजय अभियान से खुश होकर नाग शासक ने अपनी कन्या रेवा का विवाह पुरूकुत्स से कर दिया। पुरूकुत्स ने रेवा का नाम नर्मदा में बदल दिया। इसी वंश के शासक मुचकुन्द ने रिक्ष और परिपात पर्वतमालाओं के बीच नर्मदा तट पर अपने पूर्वज नरेश मांधाता के नाम पर मांधातानगरी बसाई।
हैहय वंश: यादव वंश के संस्थापक यदु के पौत्र हैहय के नाम पर इस वंश की स्थपना हुई। इस वंश के राजा महिष्मत ने नर्मदा के किनारे महिष्मति नगर बसाया। कार्तवीर्य अर्जुन इस वंश के महान राजा थे। उन्होंने काररकोट वंशी नागों, अयोध्या के पौरवराज, त्रिशंकु और लंकेश्वर रावण को हराया।
महाकाव्य काल: रामायण और महाभारत महाकाव्यों में मध्यप्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों का वर्णन हुआ है। रामायण काल में प्राचीन म.प्र. में दण्डकारण्य और महाकान्तार के घने वन थे। यदुवंशी नरेश मधु इस क्षेत्र के शासक थे जो अयोध्या के राजा दशरथ के समकालीन थे। वाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान राम अपने वनवास का अधिकांश समय दण्डकारण्य(बस्तर) में बिताया जो वर्तमान में छत्तीसगढ़ में स्थित है। भविष्य में कुश ने दक्षिण कौशल (छत्तीसगढ़) पर राज्य किया। शत्रुघन के पुत्र शत्रुघाती ने दशार्ण (विदिशा) पर राज्य किया जिसकी राजधानी कुशावती थी।
सतपुड़ा और विंध्याचल में निषाद जाति का राज्य था। महाभारत के युद्ध में भी इस क्षेत्र के राजाओं ने भाग लिया। इस युद्ध में वत्स, काशी, कारूष, चेदि, दशार्ण व मत्स्य (वर्तमान बुन्देलवण्ड व बघेलखण्ड का क्षेत्र) जनपदों के राजाओं ने पांडवों का साथ दिया जबकि महिष्मति के नील, अवंति के बिन्द, भोज, अंधक, विदर्भ व निषाद राजाओं ने कौरवों का साथ दिया। कुंतलपुर(कौंडि़या), विराटपुरी(सोहागपुर), महिष्मती(महेश्वर), व उज्जयिनी महाकाव्य काल के प्रमख नगर थे।
महाजनपद: 600 ई. पू. भारत में लगभग 16 जनपद थे इसलिए इस काल को महाजनपद काल कहा जाता है। इसमें दो महाजनपद, चेदि(बुन्देलखण्ड) व अवंति(उज्जैन), मध्यप्रदेश के अन्तर्गत थे।
अवंति: अवंति एक अत्यन्त विशाल महाजनपद था। यह पश्चिमी और मध्य मालवा के क्षेत्र में बसा हुआ था। इसके दो भाग थे- उत्तरी अवंति और दक्षिणी अवंति। उत्तरी अवंति की राजधानी उज्जयिनी तथा दक्षिणी अवंति की राजधानी महिष्मती थी। इन दोनों के बीच में वैत्रवती नदी (वर्तमान बेतवा) बहती थी। छठवीं शताब्दी ई. पू. में अवंति बौद्धों का प्रसिद्ध केन्द्र बन गया था। अवंति के दो प्रमुख नगर कुररधर और सुदर्शनपुर का वर्णन बौद्ध ग्रन्थों में है।
चण्ड प्रद्योत यहॉं का प्रमुख शासक था। यह महात्मा बुद्ध के समकालीन था। चण्ड प्रद्योत के समय बिम्बिसार मगध का राजा था। उसने अपने राजवैद्य जीवक को प्रद्योत का इलाज करने के लिए भेजा था। प्रद्योत हाथी पालन कला का विशेषज्ञ भी था।
पुराणों के अनुसार प्रद्योत के पश्चात् क्रमश: पालक, विशाखयूप, अजक तथा नंदिवर्धन नामक शासक हुए। कालान्तर में मगध के हर्यक कुल के अंतिम शासक नागदशक के काल में असके अमात्य शिशुनाग द्वारा अवंति राज्य पर आक्रमण कर प्रद्योत वंश के अंतिम शासक नंदिवर्धन को पराजित कर अवंति राज्य के पूरे क्षेत्र को मगध में मिला लिया।
इस प्रकार मगध में शिशुनाग वंश का अभ्युदय हुआ। शिशुनाग वंश के पतन के बाद मध्य प्रदेश में नंद वंश का शासन रहा। नंद वंश का पहला शासक महपद्मनंद बना। इसने ही राज्य में नंद वंश की स्थापना की।
चेदि: यह जनपद बुन्देलखण्ड क्षेत्र के पूर्व में विस्तारित था। जिसकी राजधानी शक्तिमती थी। इसकी एक शाखा कलिंग में स्थापित हुई। खारवेल यहॉं का प्रसिद्ध शासक हुआ। चेदि वंश के राजा शिशुपाल का महाभारत में वर्णन हुआ है जिसका सिर कृष्ण ने अपने चक्र से काटा था। मगध के नंदवंशी राजा महापद्मनंद ने साम्राज्य विस्तार की अपनी नीति के तहत चेदि को मगध में मिला लिया था।
मौर्यकाल: मोर्यों के समय भी अवंति और चेदि मगध का भाग बने रहे। चंद्रगुप्त मौर्य के पुत्र बिन्दुसार ने अशोक को अवंति का प्रांत पति बनाया। अशोक ने ‘देवनाम् पिय’ की उपाधि धारण की थी। अशोक ने उज्जयिनी को अवंति की राजधानी बनाया था। अशोक ने विदिशा के नगरसेठ की बेटी देवी से विवाह किया।
महाबोधिवंश में असका नाम ‘वेदिशमहादेवी’ मिलता है तथा उसे शाक्य जाति का बताया गया है। उसी से अशोक के पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा का जन्म हुआ था, जिन्हें अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु श्रीलंका भेजा था। अशोक ने सम्राट बनने के उपरांत सांची के प्रसिद्ध स्तूप का निर्माण कराया। संभवत: महादेवी के लिए भी एक स्तूप उज्जैन में अशोक ने बनवाया था जिसे ‘’वैश्य टेकरी’’ के नाम से जाना जाता है।
मौर्यकालीन अभिलेख
1. रूपनाथ | – जबलपुर के सिहोरा तहसील का एक गाँव |
2. गुर्जर | – दतिया (इस शिलालेख में अशोक का नाम ‘देवानां प्रिय प्रियदस्सी‘ के रूप में उल्लेखित है।) |
3. सारो मारो | – शहडोल |
4.पानगुड़ारिया | – सीहोर |
5. सांची | – रायसेन |
मौर्यकालीन स्मारक:
1. उज्जैन का बौद्ध महास्तूप: सम्राट अशोक ने अपनी पत्नी देवी के लिए इस स्तूप का निर्माण करवाया। इसके अवशेष वैश्य टेकरी (कानीपुरा) नामक टीले के रूप में विद्यमान है।
2. सांची के स्तूप: सांची के स्तूप बौद्ध स्मारक हैं जो म.प्र. के रायसेन जिले के सांची में बेतवा नदी के तट पर स्थित हैं। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में बने स्तूप सांची का प्रमुख आकर्षण केन्द्र हैं। सन् 1818 में सर्वप्रथम जनरल टेलर ने सांची के स्तूप की खोज की थी। 1919-20 ई. के बीच सर जॉन मार्शल ने सांची स्तूपों का पुनरुद्धार करवाया।
सांची को प्राचीन काल में ‘काकणाय’, ‘काकणादबोट’, ‘बोट-श्री पर्वत’ नामों से जाना जाता था। साँची के पुराने स्मारकों के निर्माण का श्रेय मौर्य सम्राट अशोक (तत्कालीन राज्यपाल विदिशा) को है जिन्होंने अपनी विदिशा निवासी रानी की इच्छानुसार साँची की पहाड़ी पर स्तूप विहार एवं एकाश्म स्तम्भ का निर्माण कराया था।
शुंग काल में साँची एवं उसके निकटवर्ती स्थानों पर अनेक स्मारकों का निर्माण हुआ था। इसी काल में अशोक के ईट निर्मित स्तूप को प्रस्तर खंडों से आच्छादित किया गया था। स्तूप 2 और 3 तथा मंदिर का निर्माण शुंगकाल में ही हुआ था। स्तूपों में विशाल स्तूप क्रमांक एक:- 36.5 मीटर की परिधि तथा 16-4 मीटर की ऊंचाई वाला भव्य निर्माण प्राचीन भारतीय स्थापत्य कला की अनुपम कृति हैं। स्तूप क्रमांक-दो की श्रेष्ठता उसके पाषाण-निर्मित घेरे में है। उर्द्धगोलाकार युक्त गुंबध वाले स्तूप क्रमांक-तीन का धार्मिक महत्व है।
महात्मा बुद्ध के दो प्रमुख शिष्यों सारिपुत्र तथा महामौगलायन के अवशेष यहीं मिले थे। वर्ष 1989 में इन्हें यूनेस्को विश्व धरोहर में शामिल कर लिया गया।
3. भोजपुर स्तूप: भोजपुर में 37 स्तूपों के अवशेष पाए गए हैं। इसी रायसेन जिले के खरवई से दो स्तूप एवं विहार के अवशेष पाए गये हैं।
4. भरहुत का स्तूप: सतना जिले में एक विशाल स्तूप का निर्माण हुआ था। इसके अवशेष आज अपने मूल स्थान पर नहीं हैं, परन्तु उसकी वेष्टिनी का एक भाग तथा तोरण भारतीय संग्रहालय कोलकाता तथा प्रयाग संग्रहालय में सुरक्षित है। 1875 ई. में कनंघम द्वारा इसकी खोज की गई।
5. देउरकोठार के स्तूप : देउरकोठार मध्यप्रदेश के रीवा जिले के त्यौंथर तहसील के अंतर्गत स्थित है जो मौर्यकाल में बौद्ध केन्द्र के रूप में विकसित हुआ।
6. तूमैन का स्तूप : तूमैन विदिशा तथा मथुरा को जोड़ने वाले व्यापारिक मार्ग पर स्थित था। यहॉं तीन मौर्य कालीन बौद्ध स्तूप प्राप्त हुए हैं।
7. कसरावद के स्तूप : खरगौन जिले में स्थित कसरावद कस्बे से 3 मील दक्षिण में स्थित ,इतबर्डी नामक टीले के उत्खनन से मौर्यकालीन ग्यारह स्तूप प्राप्त हुए हैं।
8. महेश्वर एवं नावदाटोली स्तूप : महेश्वर एवं नावदाटोली खरगौन जिले में नर्मदा नदी के उत्तरी एवं दक्षिणी तटों पर स्थित है।
9. पानगुड़ारिया का स्तूप : पानगुड़ारिया से प्रदक्षिणायुक्त स्तूप मिला है। यहॉं से एक मौर्यकालीन अभिलेख भी प्राप्त हुआ है।
मौर्यकालीन प्रमुख नगर : मध्यप्रदेश में मौर्यकालीन नगरों में त्रिपुरी, एरण, महिष्मती, भागिल, विदिशा, उज्जयिनी एवं पद्मावती प्रमुख नगर थे।
शुंग वंश : मौर्यों के पतन के बाद शुंग मगध के शासक हुए। पुष्यमित्र शुंग ने अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की हत्या करके शुंग वंश की स्थापना की। पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र विदिशा का राज्यपाल था । और अग्निमित्र ने अपने मित्र माधवसेन को विदर्भ का राज्यपाल बनाया था। इसी अग्निमित्र और मालविका के प्रेम प्रसंग को आधार बनाकर ,कवि कालिदास ने अपनी रचना मालविकाग्निमित्र लिखी।
शुंग काल में ही भरहुत स्तूप के आकार को बढ़ाया गया था। शुंग काल में ही सांची के स्तूपों का परिवर्धन और विस्तार किया गया। शुंग वंश के शासक भागवत (काशीपुत्र भागभद्र) के काल में ऐन्टियाल्किडस का यूनानी राजदूत हेलियोडोरस आया था । उसने बेसनगर(विदिशा) में भगवान विष्णु को समर्पित गरुड़ स्तंभ की स्थापना की थी।
सातवाहन वंश: मध्यप्रदेश से प्राप्त अवशेषों से सातवाहन वंश का भी पता चलता है। गौतमी पुत्र शातकर्णी इस वंश का महान शासक था जिसके सिक्के उज्जैन में अधिक संख्या में मिले हैं। सांची स्तूप की वेदिका पर उत्कीर्ण लेख में सातवाहन शासक शातकर्णी के पूर्वी मालवा के विजय का उल्लेख है। उज्जैन, देवास, होशंगाबाद(जमुनिया), जबलपुर(तेवर, भेड़ाघाट, त्रिपुरी) आदि से सातवाहन शासक राजा सिरि सात नामांकित सिक्के मिले हैं। त्रिपुरी से सातवाहन वंश के सीसे के सिक्के प्राप्त हुए हैं। वासिष्ठी पुत्र पुलमावी के सिक्के भेलसा व देवास से मिले हैं। यज्ञश्री शातकर्णी अंतिम सातवाहन शासक था जिसके सिक्के बेसनगर, तेवर और देवास से प्राप्त हुए हैं।
इण्डो–यूनानी काल: मिनान्डर इस काल का प्रमुख शासक था। मिनान्डर के सिक्के बालघाट से प्राप्त हुए हैं। मिनान्डर ने स्यालकोट को राजधानी बनाकर विशाल साम्राज्य स्थापित किया। उसे नागसेन ने बौद्ध बनाया। मंदसौर से रोम देश के कुछ सिक्के प्राप्त हुए हैं। हिन्द यूनानियों ने ही भारत में सर्वप्रथम सोने के सिक्के जारी किये थे।
शक राज्य: मध्यप्रदेश के इतिहास में शक का भी योगदान रहा है। इसके दो वंश थे – क्षहरात और कार्दमक।
क्षहरात वंश: भूमक और नहपान इस वंश के प्रतापी राजा थे। इनका राज्य मंदसौर और उज्जैन तक फैला था। नहपान का युद्ध गौतमीपुत्र शातकर्णी के साथ हुआ था जिसमें नहपान पराजित हुआ था। संभवत: गौतमीपुत्र शातकर्णी ने पराजित कर उसकी हत्या कर दी थी। जोगलथम्बी से नहपान के पुनर्मुद्रित सिक्के प्राप्त हुए हैं। शिवपुरी से भी नहपान के ढलवाए सिक्के मिले हैं।
कार्दमक वंश: शक राज्य कार्दमक वंश की स्थापना यशोमती और उसके पुत्र चष्टन द्वारा की गई थी। इसे चष्टन वंश भी कहा जाता है। चष्टन वंश का शासन उज्जैन व काठियावाड़ में था। चष्टन की राजधानी उज्जयिनी थी। चष्टन के सिक्के उज्जैन तथा शिवपुरी से मिले हैं। रूद्रदामन इसका प्रसिद्ध राजा था। वह संस्कृत का महान पण्डित था। रूद्रदामन के गिरनार (जूनागढ़, गुजरात) स्थित संस्कृत अभिलेख के अनुसार सौराष्ट्र में सुदर्शन तटक का पुननिर्माण रूद्रदामन ने करवाया था। उसने सर्वप्रथम तिथि युक्त चांदी के सिक्के चलवाये थे।
महाक्षत्रप रूद्रदमन से संबंधित सिक्कों का भंडार शिवपुरी, सांची, सिवनी, तथा बेसनगर आदि से मिला है। शकों का अभिलेख उज्जैन से मिला है। रूद्रसिंह का शिलालेख खेतखेड़ी से मिला है। शासक श्रीधरवर्मन के अभिलेख एरण और सांची के समीप कानाखेड़ा से मिले हैं।
कुषाण वंश: कुजुल कडफिसेस कुषाण वंश का संस्थापक था। कनिष्क इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था, जिसके सिक्के शहडोल से मिले हैं। राजा वासिष्क के सांची अभिलेख के अनुसार उसके समय दुहिता मधुकरि ने एक बौद्ध प्रतिमा का निर्माण करवाया था। उसके उत्तराधिकारी हुविष्क के सिक्के झाझापुरी, शहडोल तथा हरदा से प्राप्त हुए हैं तथा राजा वासुदेव के सिक्के तेवर (जबलपुर) से मिले हैं। कुषाण शासक वीम कैडफिसेस का सिक्का विदिशा से प्राप्त हुआ है। कुषाणकालीन अभिलेखों में वासिष्क का सांची अभिलेख और भेड़ाघाट(जबलपुर) से प्राप्त दो मूर्तिलेख प्रमुख हैं। अश्वघोष(राजकवि), आचार्य नागार्जुन, पार्श्व, वसुमित्र, मातृचेट, संघरक्ष और चरक नामक विद्धान कनिष्क दरबार में थे।
नागवंश: नागवंशी शासक वृषनाग ने विदिशा, ग्वालियर क्षेत्र में नागवंश की स्थापना की थी। विदिशा से वृषनाग के सिक्के प्राप्त हुए हैं, जिन्हें ग्वालियर संग्रहालय में संरक्षित रखा गया है। वृषनाग की राजधानी विदिशा थी, जिसे भीमनाग ने पद्मावती स्थानांतरित किया। नागवंश के अधिकांश सिक्के पवाया(प्राचीन पद्मावती) से प्राप्त हुए हैं। गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के इलाहाबाद स्तंभ लेख में अंतिम नाग शासक गणपति नाग का नाम का वर्णन है। समुद्रगुप्त ने गणपति नाग को पराजित कर उसका राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिया था। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने मथुरा के नागवंश की राजकुमारी कुबेर नागा से विवाह किया था।
बोधिवंश: मध्यप्रदेश के त्रिपुरी क्षेत्र (जबलपुर, तेवर) पर बोधिवंश का शासन था। श्री बोधि, वसुबोधि, चन्द्रबोधि और शिवबोधि बोधि वंश के शासक थे, जिनके सिक्के त्रिपुरी क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं।
मघवंश: भीमसेन, भद्रमघ तथा शिवमघ मघ वंश के मुख्य शासक थे। कौशाम्बी, भीटा और बांधवगढ़(शहडोल) से मघ शासकों के सिक्के, मुहरे व शिलालेख मिले हैं।
गुप्तकाल: गुप्तवंश का संस्थापक श्री गुप्त था। मध्य प्रदेश के सागर जिले के एरण से प्राप्त समुद्रगुप्त के अभिलेख से उसकी इस क्षेत्र में सत्ता का प्रमाण है। एरण समुद्रगुप्त के समय उसका स्वभोगनगर था। समुद्रगुप्त प्रथम गुप्त शासक है, जिसके सिक्के मध्य प्रदेश से मिले हैं। बनमाला तथा सकौर से प्राप्त समुद्रगुप्त के सिक्के इस बात का प्रमाण है कि समुद्रगुप्त ने मध्य प्रदेश के अधिकांश भाग तथा नर्मदा नदी की उत्तरी सीमा तक अपना राज्य स्थापित किया था। समुद्रगुप्त की मृत्यु के बाद उसका पुत्र रामगुप्त शासक बना।
रामगुप्त के ताम्र सिक्के एरण व विदिशा से प्राप्त हुए हैं। एरण से प्राप्त सिक्कों पर सिंह व गरुड़ का चित्र था। गरुड़ गुप्त वंश का राजकीय चिन्ह था। समुद्रगुप्त शक राज्य को छोड़कर शेष मध्यप्रदेश पर अपना प्रभुत्व कर चुका था। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने शक राज्य को समाप्त कर संपूर्ण मध्यप्रदेश पर अपना स्वामित्व कर लिया। उसकी शक विजय की जानकारी ‘देवीचन्द्रगुप्तम’ और ‘शकारि’ उपाधि से पता चलती है। देवीचन्द्रगुप्तम के अनुसार गुप्त शासक रामगुप्त ने शक राजा से परास्त होकर अपनी पत्नी ध्रुव देवी उसे सौंप दी थी लेकिन उसके स्वाभिमानी भाई चन्द्रगुप्त ने शक राजा का वध कर ध्रुवस्वामिनी को मुक्ति दिलाई और रामगुप्त को मारकर गुप्त सम्राट बना।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने नागवंश कन्या कुबेरनाग से विवाह कर नागवंशों से मित्रता स्थापित की। कुबेरनाग से प्रभावती नामक कन्या का जन्म हुआ। उसने वाकाटकों से सहयोग लेने के लिए प्रभावती का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय से कर दिया। कुछ समय के बाद रुद्रसेन द्वितीय की मृत्यु हो गई। उसके पुत्र दिवाकरसेन व दामोदरसेन अवयस्क होने के कारण प्रभावती को वाकाटक राज्य का संरक्षिका बनाया गया। इसी के शासन काल में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों को हराकर गुजरात व काठियावाड़ को अपने साम्राज्य में मिला लिया व शकारि कहलाया। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शक विजय होने की जानकारी पूर्वी मालवा से प्राप्त तीन अभिलेखों से मिलती है। इसमें पहला अभिलेख भिलसा के समीप उदयगिरि की पहाड़ी से मिला है जो उसके संधि विग्राहक वीरसेन साव का है।
दूसरा अभिलेख भी उदयगिरि से मिला है, जो सामन्त सनकानीक महाराजा का है और तीसरे में पदाधिकारी का उल्लेख है जो सैकड़ों युद्धों का विजेता था। इसने उज्जैयिनी को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। इसके दरबार में ही नवरत्न होते थे। कालीदास, बेतालभट्ट, धन्वंतरि, वराहमिहिर, अमरसिंह, वररूचि, घटकपर, क्षपणक, शुक नवरत्न में शामिल थे। इसका नेतृत्व कालिदास कर रहे थे। उसके उत्तराधिकारी कुमारगुप्त की मन्दसौर प्रशस्ति के अनुसार उसके सेनापति बंधुवर्मा ने सूर्य मंदिर को दान दिया था। चीन की खूंखार जाति हूण का पहला प्रमाणिक आक्रमण स्कन्दगुप्त के समय में माना जाता है। स्कन्दगुप्त ने इन्हें बुरी तरह पराजित किया था। हूण आक्रमण का फायदा उठाकर वाकाटकों ने मालवा पर अधिकार कर लिया था लेनिक स्कन्दगुप्त ने उन्हें छीन लिया।
भारत में हूणों का द्वितीय आक्रमण नरसिंहगुप्त बालादित्य (बुद्धगुप्त का छोटा भाई) के शासन काल में हुआ, जिसमें हुण नरेश मिहिरकुल को पराजय का सामना करना पड़ा और उसे बना लिया गया लेकिन मॉं के कहने पर मुक्त कर दिया गया। गुप्त शासक भानुगुप्त ने भी हूणों को पराजित किया, इस युद्ध में उसका सैनिक गोपीराज मारा गया था जिसकी विधवा के सती होने का वर्णन एरण अभिलेख में है। धार जिले में गुप्त वंशजों द्वारा निर्मित बाघ की गुफाऍं हैं।
प्रमुख गुप्तकालीन अभिलेख:
मन्दसौर अभिलेख: यह भाग पश्चिमी मालवा का हिस्सा था। इसका नाम दशपुर भी मिलता है। यह एक प्रशस्ति लेख है, जिसकी रचना संस्कृत विद्वान वत्सभट्टि ने की थी। इस लेख में राजा के राज्यपाल बन्धुवर्मा का उल्लेख मिलता है जो वहां शासन करता था। इस लेख में सूर्य मंदिर के निर्माण का भी लेख है। इससे कुमारगुप्त के शासन की जानकारी मिलती है।
सांची अभिलेख: यहां से प्राप्त अभिलेख में हरिस्वामिनी द्वारा यहॉं के आर्य संघ को धन दान में दिए जाने का उल्लेख है।
उदयगिरि गुहालेख: इसमें शंकर नामक व्यक्ति द्वारा इस स्थान पर पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित किये जाने का वर्णन है।
तूमैन अभिलेख: इस अभिलेख में राजा को शरदकालीन सूर्य की भॉंति बताया गया है।
सुपिया का लेख: यह लेख रीवा जिले में सुपिया नामक स्थान पर मिला है। इसमें गुप्तों की वंशावली घटोत्कच के समय से मिलती है और गुप्त वंश को घटोत्कच कहा गया है। यह लेख स्कन्दगुप्त के विन्ध्य प्रदेश पर प्रभाव को दर्शाता है।
एरण अभिलेख: तोरमाण का वराह प्रतिमा एरण अभिलेख और मिहिरकुल का ग्वालियर अभिलेख से हूणों की उपस्थिति की जानकारी मिलती है। एरण से प्राप्त भानुगुप्त अभिलेख से सती प्रथा के प्रचलन का प्रथम पुरातात्विक साक्ष्य मिलता है।
वाकाटक वंश: यह वंश गुप्त काल के समकालीन रहा है। पुराणों के अनुसार विन्ध्यशक्ति वाकाटक वंश का संस्थापक था, जिसने विदिशा पर शासन किया। विन्ध्यशक्ति का उत्तराधिकारी उसका पुत्र प्रवरसेन प्रथम बना, जिसने नागों की राजधानी पुरिका पर आक्रमण कर नागों को पराजित किया। यह इस वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा था। इसने अश्वघोष यज्ञ किया और अपनी शक्ति को बढ़ाने के लक्ष्य से नाग वंश के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किये। प्रवरसेन द्वितीय ने प्रवरपुर नामक नगर बसाया। इतिहासकार आधुनिक पवनार को प्राचीन प्रवरपुर मानते हैं। प्रवरसेन द्वितीय के 12 दानपत्रों में से 7 दानपत्र छिंदवाड़ा, सिवनी, बैतूल, बालाघाट, दुर्ग तथा इन्दौर जिले से मिले हैं। इस दानपत्रों से उनका इस क्षेत्र में अधिकार का प्रमाण मिलता है। इस वंश की दो शाखाएं थीं – नन्दीवर्धन शाखा (पुरिक शाखा) और वत्सगुल्म शाखा।
नन्दीवर्धन शाखा: नन्दीवर्धन शाखा का संस्थापक रूद्रसेन प्रथम था। इसके एक शासक नरेन्द्र सेन ने हूण आक्रमण का फायदा उठाकर मालवा गुप्तों से छीन लिया था।
वत्सगुल्म शाखा: इस वाकाटक शाखा की स्थापना सर्वसेन की। हरिषेण ने इन दोनों शाखाओं का पुन: एकीकृत कर दिया। पृथ्वीसेन द्वितीय के बाद मध्यप्रदेश में वाकाटक वंश के अधिकार के संबंध में कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिले हैं।
औलिकर वंश: चौथी प्राचीन दशपुर(मन्दसौर) में औलिकर वंश की स्थापना हुई। जयवर्मन, सिंहवर्मन, नरवर्मन तथा यशोधर्मन इस वंश के प्रमुख शासक थे। इसके एक शासक बंधुवर्मन का शिलालेख मंदसौर से मिला है जिसके अनुसार बंधुवर्मन स्कन्दगुप्त का एक सामन्त बन गया था। मंदसौर से ही प्राप्त एक और अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन ने ‘जनेन्द्र’, ‘नराधिपति’, ‘राजाधिराज’, ‘परमेश्वर’ आदि उपाधियां ग्रहण की थी।
परिव्राजक वंश: बुन्देलखण्ड की पूर्व नागोद और जसो रियासतों में परिव्राजक वंश ने राज किया। देवाढ्य इसका पहला राजा था। प्रभंजन, दामोदर और हस्तिन उसके उत्तराधिकारी बने। परिव्राजक वंश के 8 अभिलेख खोह, जबलपुर, बैतूल, भमरा एवं मझगवां से प्राप्त हुए हैं। हस्तिन के शासनकाल में उच्चकल्प शासक सर्वनाथ को एक भोगभूमि प्राप्त हुई थी। हस्तिन का पुत्र संक्षोभ उसका उत्तराधिकारी बना। बैतूल और खोह से प्राप्त ताम्रपत्रों के अनुसार संक्षोभ ने डाहल क्षेत्र पर राज किया था।
उच्चकल्प वंश: गुप्तकाल के शासन काल के समय मध्यप्रदेश के बघेलखण्ड में स्थित ऊँचेहरा ग्राम में उच्चकल्प वंश का शासन था। इनकी राजधानी उच्चकल्प (ऊँचेहरा–सतना) थी। इस वंश के नौ अभिलेख ऊँचेहरा, कटनी, कारीतलाई, खोह और सोहावल से प्राप्त हुए हैं। उच्चकल्प शासक जयनाथ के अभिलेखों से पूर्व शासक ओघदेव, कुमारदेव, जयस्वामिनी और व्याग्रराज के शासन की जानकारी मिलती है। बघेलखण्ड के नचाना व गंज से प्राप्त अभिलेखों में व्याग्रराज का उल्लेख है। जयनाथ व्याग्रराज का पुत्र था। जयनाथ के बाद उसका पुत्र सर्वनाथ उत्तराधिकारी बना। उसके अभिलेख खोह, भूमरा और पन्ना से मिले हैं।
मेकल का पाण्डुवंश: मध्यप्रदेश के शहडोल जिले के अमरकंटक के आसपास मेकल श्रेणियों में पाण्डुवंश का शासन था। बम्हनी से प्राप्त ताम्रलेख के अनुसार इसके प्रारंभिक शासक जयबल और वत्सराज हुए। इस वंश के अन्य अभिलेख बूढ़ीखार, मलगा व मल्हार से प्राप्त हुए हैं।
मौखरि वंश: हरिवर्मा मौखरि वंश का संस्थापक था। शासक शर्ववर्मा का एक ताम्र-मुहर लेख मध्य प्रदेश के पूर्व निमाड़ जिले के असीरगढ़ के किले से प्राप्त हुआ है। कालिंजर बुन्देलखण्ड क्षेत्र पर इस वंश प्रत्यक्ष अधिकार का प्रमाण भोजदेव का विक्रम संवत् 893 का बाड़ा दानपत्र है जिसमें परमेश्वर श्री शर्ववर्मा द्वारा दिये गये दान की चर्चा है।
वर्धन वंश (पुष्यभूति वंश): इस वंश के महान शासक हर्षवर्द्धन का राज्य मध्यप्रदेश में था। हर्षवर्द्धन-पुलकेशिन युद्ध का उल्लेख नर्मदा तट पर प्राप्त होता है।
चालुक्य वंश: चालुक्य वंशी शासक पुलकेशियन द्वितीय का शासन दक्षिणी मध्यप्रदेश पर था। चीनी यात्री व्हेनसांग के अनुसार पुलकेशियन द्वितीय ने हर्षवर्द्धन को नर्मदा नदी पार करने से रोका था।
राष्ट्रकूट वंश: राष्ट्रकूट वंश की दो शाखाओं का शासन मध्यप्रदेश के कुछ भागों पर था। पहली शाखा बैतूल-अमरावती क्षेत्र में राज्य करती थी और दूसरी शाखा मान्यखेत में राज्य करती थी। दुर्गराज, गोविन्दराज, स्वामिकराज, तथा नन्नराज युद्धासुर पहली शाखा के ज्ञात राजा थे। दन्तिदुर्ग दूसरी शाखा के संस्थापक थे। दन्तिदुर्ग ने अपनी विदर्भ विस्तार करते हुए उज्जयिनी के गुर्जर शासक पर विजय के उपलक्ष्य में हिरण्यगर्भ दान दिया। मालवा पर अधिकार बनाए रखने के लिए राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय को गुर्जर प्रतिहार शासक भोज से युद्ध करना पड़ा था। इनके एक राजा युहासुर के ताम्रपत्र तिसरखेड़ी और मुलताई से मिले हैं।
मान्यखेत के राजा गोविन्द तृतीय ने नागभट्ट को पराजित कर उज्जैन में दरबार लगाया था। अंतिम राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय का नाम छिन्दवाड़ा के नीलकण्ढी शिलालेख में आता है तथा इसी की प्रशस्ति से युक्त एक शिलालेख मध्यप्रदेश के मैहर के पश्चिम में जूरा नामक ग्राम से प्राप्त हुआ है।
शैलवंश: 8वीं सदी में मध्यप्रदेश के महाकौशल के पश्चिमी क्षेत्र में शैलवंश नामक राजवंश की स्थापना के साक्ष्य हैं। बालाघाट जिले में स्थित राघोली से प्राप्त ताम्रपत्र में शैल वंश की वंशावली दी गई है। वंशावली के अनुसार श्रीवर्धन शैल वंश का प्रथम शासक था। श्रीवर्धन के पश्चात उसका पुत्र पृथुवर्धन शासक बना जिसने गुर्जर प्रदेश पर विजय प्राप्त की। पृथुवर्धन का पुत्र सौरवर्धन पृथुवर्धन का उत्तराधिकारी बना। सौरवर्धन के पुत्र जयवर्धन प्रथम ने विन्ध्य के शासक को पराजित कर वहॉं अपना शासन स्थापित किया। जयवर्धन के पुत्र श्रीवर्धन द्वितीय को ‘विन्ध्य का स्वामी’ बताया गया है।
गुर्जर प्रतिहार वंश: नागभट्ट द्वारा उज्जियनी में गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना हुई। इसने अरबों के आक्रमण को विफल किया था। नागभट्ट अपने शासनकाल में केवल राष्ट्रकूट दन्तिदुर्ग से हारा था। जैन ग्रंथ कुवलयमाला और हरिवंश पुराण के अनुसार गुर्जर वत्सराज मालवा पर शासन करता था। उज्जैन के गुर्जर प्रतिहार वंश के चौथे शासक नागभट्ट द्वितीय को कन्नौज में गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य का संस्थापक राजा कहा जाता है।
रामभद्र की रानी अप्पादेवी से उत्पन्न उसका पुत्र मिहिरभेाज उसका उत्तराधिकारी बना। मिहिर भोज को दौलतपुर अभिलेख में ‘प्रभास’, चतुर्भुज मंदिर ग्वालियर के अभिलेख में ‘आदिवराह’ तथा सागरताल प्रशस्ति में ‘मिहिर’ आदि उपाधियॉं दी गई हैं। मिहिर भोज ने अपने राज्य को सुसंगठित करते हुए बुन्देलखण्ड पर पुन: अधिकार कर लिया। मध्य प्रदेश में मिहिर भोज के दो अभिलेख ग्वालियर से तथा एक अभिलेख ग्वालियर जिले के सागरताल से प्राप्त हुआ है। मिहिरभोज के समय अरब यात्री सुलेमान आया था।
सुलेमान ने मिहिरभोज को उस समय का सबसे शक्तिशाली राजा बताया। राष्ट्रकूट शासक नरेश इन्द्र तृतीय ने गुर्जर प्रतिहार शासक महिपाल प्रथम को हराकर उज्जैन पर अधिकार कर लिया। यशपाल इस वंश का अंतिम शासक था।
कलचुरि राजवंश: मध्य प्रदेश में कलचुरि वंश दो शाखायें थी- माहिष्मति शाखा और त्रिपुरी शाखा। प्रारंभ में कलचुरि वंश के कटच्छुरि, कलत्सुरि, कलचुति आदि अन्य नाम मिलते हैं, जो अस्पष्टता और अनिश्चितता का द्योतक है। यह मान्यता है कि यह नाम कलच्छल नामक ग्राम के आधार पर रखा गया होगा।
माहिष्मति शाखा: कलचुरियों की सबसे प्राचीन शाखा आद्य या माहिष्मति शाखा से नाम से जानी जाती है। कृष्णराज, शंकरगण और बुद्धराज इस शाखा में प्रमुख शासक हैं। कृष्णराज ने रजत, ताम्र तथा सीसे के सिक्के ढलवाये थे जिनमें चांदी के सिक्के विशाल क्षेत्र में प्रचलित पाये गये हैं। चांदी के सिक्के बेसनगर, तेवर तथा पट्टन से मिले हैं। कृष्णराज का पुत्र शंकरगण उसका उत्तराधिकारी बना। शंकरगण का पुत्र बुद्धराज इस शाखा का अंतिम ज्ञात राजा था।
त्रिपुरि शाखा: चालुक्यों से हारने के बाद बुद्धराज के वंशज माहिष्मति को छोड़कर चेदि देश भाग आये और त्रिपुरी को अपनी राजधानी बनाया। वामराजदेव इस शाखा का संस्थापक था, जिसने 7वीं शताब्दी में कालंजर को जीतकर अपनी राजधानी वहॉं स्थापित की। बाद में त्रिपुरि पुन: राजधानी बनी। कर्ण इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था। कर्ण को हिन्दू नेपोलियन कहा जाता है। विजय सिंह त्रिपुरि के कलचुरि वंश का अंतिम शासक था। राजशेखर द्वारा रचित कर्पूरमंजरी नामक प्रसिद्ध नाटक कलचुरि दरबार के प्रोत्साहन में ही रचा गया था।
परमार वंश: परमार वंशीय शासक राष्ट्रकूट शासकों के सामंत थे। उपेन्द्र कृष्णराज ने मालवा में परमार राजवंश की स्थापना की। इयकी राजधानी धार थी। सर्वप्रथम परमार शासक (सीयक द्वितीय) ने 945 ई. में अपने आप को स्वनंत्र घोषित किया और नर्मदा नदी के तट पर तत्कालीन राष्ट्रकूट शासक खोट्टिंग को हराया। इसकी मृत्यु के बाद वाकपति मुंज राजा बना। मुंज के दरबार में परिमलपद्म, धनिक, धनंजय, हलायुध और अमित जैसे विद्वान थे। मुंज ने धार में मुंजसागर झील का निर्माण करवाया। वाकपति मुंज ने गोदावरी नदी पार कर चालुक्य नरेश तैल द्वितीय पर आक्रमण किया और हारा गया तथा बंदी बनाकर तैल द्वितीय द्वारा मार दिया गया। मुंज की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई सिन्धुराज राजा बना।
परिमलगुप्त ने सिंधुराज के ऊपर ‘नवसाहसांकचरित’ लिखी। यह सिंधुराज की उपाधि थी। परिमल इसका भी दरबारी रहा। इसकी अन्य उपाधियॉं श्री वल्लभ, पृथ्वी वल्लभ, अमोघवर्ष थीं। सिन्धुराज की मृत्यु के बाद उसका पुत्र भोज शासक बना। भोज इस वंश का प्रतापी व योग्य शासक था। पारिजात मंजरी, उदयपुर प्रशस्ति तथा फलवन अभिलेख के अनुसार भोज ने त्रिपुरी के कलचुरि गागेयदेव, शाकंभरी के चौहान नरेश वीर्यराम को परास्त किया। नागाई लेख से प्राप्त जानकारी के अनुसार चालुक्य नरेश सोमेश्वर द्वितीय ने राजधानी धार पर आक्रमण जिसमें भोज पराजित हुआ। राजा भोज प्रगाढ़ पंडित और विधा प्रेमी थे।
भोज ने अपनी विद्वता के कारण कविराज की उपाधि धारण की थी। भोज के शासन काल में धार नगरी विद्या और कला का महत्वपूर्ण केंद्र था। यहॉं अनेक महल व मंदिर बनाये गये जिसमें सरस्वती मंदिर प्रमुख था। उसने धार के सरस्वती मंदिर में प्रसिद्ध संस्कृत विद्यालय की स्थापना करवाई (वाग्देवी के प्रतिमा भी)। भोज ने भोपाल के दक्षिण पूर्व में 250 वर्ग मील क्षेत्र में एक झील का निर्माण करवाया जो भोजसर के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। आईन-ए-अकबरी के उल्लेख के अनुसार भोज की राज्य सभा में 500 विद्वान थे।
विदिशा जिले के गंजबासौदा के समीप उदयपुर नामक स्थान के नीलकण्ठेश्वर मंदिर के एक शिलापट्ट के ऊपर उत्कीर्ण प्रशस्ति ही उदयपुर प्रशस्ति के नाम से प्रसिद्ध है जिसमें परमार वंश के शासकों के नाम तथा उपलब्धियों के बारे में स्पष्ट जानकारी दी गई है। आयुर्वेद सर्वस्व और समरांगण सूत्रधार भोज द्वारा लिखित ग्रंथ हैं। भोज की मृत्यु के बाद मालवा पर कलचुरि नरेश कर्ण तथा चालुक्य नरेश भीम का अधिकार हो गया।
चंदेल वंश (जेजाकभुक्ति): इस वंश की स्थापना नन्नुक द्वारा की गई। खजुराहो को इसकी राजधानी बनाया गया, जिसे बाद में बदलकर महोबा कर दिया गया। लेखों में इन्हें चन्द्रात्रेय ऋषि का वंशज कहा गया है, जो आत्रि के पुत्र थे। चंदेल शासक जयशक्ति (जेज्जाक या जेजा) के नाम पर चन्देल वंश का नाम जेजाकभुक्ति पड़ा। जयशक्ति की पुत्री नट्टा का शादी कलचुरि शासक कोकल्ल प्रथम से हुई। इस वंश के शक्तिशाली राजाओं में जयशक्ति, हर्ष, यशोवर्मन, धंग, गंड और विद्याधर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
यशोवर्मन ने ही खजुराहो का प्रसिद्ध मंदिर बनवाया। इस मंदिर में उसने बैकुण्ठ की मूर्ति की स्थापना करायी थी, जिसे उसने प्रतिहार शासक देवपाल से प्राप्त किया था। यशोवर्मन के बाद उसका पुत्र धंग शासक बना, जिसने कालिंजर पर अपना अधिकार सुदृढ़ कर उसे अपनी राजधानी बनाया। इसके बाद उसने ग्वालियर पर अपना अधिकार किया। धंग ने ही खजुराहो में पार्श्वनाथ, विश्वनाथ और वैद्यनाथ आदि मंदिर का निर्माण करवाया। धंग ने प्रतिहार सत्ता को अस्वीकार करते हुए स्वाधीनता की घोषणा की। इसने प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम पर अपना शरीर त्याग दिया।
धंग के पुत्र गंड ने खजुराहों के जगदम्बी व चित्रगुप्त मंदिर का निर्माण करवाया। गंड के पुत्र विद्याधर ने खजुराहो के कंदरिया महादेव मंदिर का निर्माण करवाया। विद्याधर ने ही महमूद गजनवी की महत्वकांक्षाओं को सफलतापूर्वक विरोध किया। इसने परमार शासक भोज व त्रिपुरि के कलचुरि शासक गांगेयदेव को पराजित कर उसे अपने अधीन किया। विद्याधर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र विजयपाल व पौत्र देववर्मन के काल मे चंदेल त्रिपुरि के कलचुरि-चेदि वंशी शासकों गांगेयदेव व कर्ण की अधीनता स्वीकार करते थे। लेकिन इन दोनों के बाद कीर्तिवर्मन ने चेदि नरेश कर्ण को हराकर पुन: उपने प्रदेश को स्वतंत्र किया। इसकी पुष्टि अजयगढ़ व महोबा से मिले चंदेल अभिलेख से भी होती है।
परमर्दिदेव (परमाल) इस वंश का अंतिम शासक था, जो महोबा में पृथ्वीराज चौहान द्वारा तथा कालिंजर में कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा पराजित हुआ। कालिंजर के युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई। आल्हा व उदल उसके साहसी दरबारी थे। गोंडवाना युद्ध में अकबर के सिपहसलाहकार आसफ खॉं के नेतृत्व वाली मुगल सेना के साथ युद्ध करने वाली रानी दुर्गावती चंदेल वंश की अंतिम संतान थी।
कच्छपघात (कछवाहा) राजवंश: यह मध्यप्रदेश के उत्तरी भू-भाग का एक महत्वपूर्ण राजवंश था। इसका मूल स्थान गोपाचल क्षेत्र है। गोपाचल क्षेत्र के अंतर्गत ग्वालियर, भिण्ड, मुरैना, शिवपुरी, गुना, श्योपुरकलॉं, अशोकनगर, दतिया आदि जिलों का भू-भाग शामिल है। इस वंश की ग्वालियर शाखा के संस्थापक का जैन मूर्ति अभिलेख मुरैना जिले के सिहोनिया से प्राप्त हुआ है। पूर्व में वज्रदामन की राजधानी सिहोनिया थी लेकिन गोपाद्रि दुर्ग जीतने के बाद उसने ग्वालियर को अपनी राजधानी बनाया। मंगलराज वज्रदामन का उत्तराधिकारी बना। मंगलराज का पुत्र कीर्तिराज उसका उत्तराधिकारी बना। कीर्तिराज महमूद गजनी और विद्याधर चन्देल का समकालीन था। मूलदेव कीर्तिराज का उत्तराधिकारी बना, जिसे सास-बहु मंदिर अभिलेख में भुवनपाल और त्रैलोक्यमल्ल नामक उपाधियों से विभूषित किया गया।
देवपाल मूलदेव का उत्तराधिकारी बना जिसे ग्वालियर अभिलेख संग्रहालय अभिलेख में अपराजित विरुद से विभूषित किया गया है। देवपाल के बाद उसका भाई सूर्यपाल ग्वालियर का शासक बना। उसके बाद सूर्यपाल का पुत्र महिपाल शासक बना। महिपाल ने ग्वालियर के किले में सास-बहु का विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया। महिपाल सास-बहु मंदिर अभिलेख में सूर्यजनित और सूर्यनृपनन्दन आदि नामों से विभूषित किया गया है। महिपाल के बाद उसका पुत्र रत्नपाल उत्तराधिकारी बना। नलपुर (नरवर) के कच्छपघात राजवंश की स्थापना वज्रदामन के पुत्र सुमित्र ने की थी।
नरवर से मिले ताम्रपत्र अभिलेख के अनुसार नरवर शाखा के अंतिम शासक वीरसिंह देव थे। दूबकुण्ड के कच्छपघात वेश का प्रथम शासक राज युवराज था। युवराज का पुत्र अर्जुन उसका उत्तराधिकारी बना। अर्जुन ने मालवा के राजा भोज को भी पराजित किया था। अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु उसका उत्तराधिकारी बना व विजयपाल अभिमन्यु का पुत्र था जो उसका उत्तराधिकारी हुआ। विजयपाल का उत्तराधिकारी विक्रम सिंह बना। विक्रम सिंह को विक्रम संवत् 1145 तिथ्यांकित शिालालेख में महाराजाधिराज उल्लेखित किया गया है।
कच्छपघात राजवंश के प्रमुख अभिलेख: सिहोनिया से प्राप्त जैन प्रतिमा लेख, दूबकुण्ड शिलालेख, ग्वालियर दुर्ग स्थित सास-बहु मंदिर अभिलेख, ग्वालियर अभिलेख, और नरवर से प्राप्त ताम्रपत्र अभिलेख।
तोमर वंश: वीरसिंह देव ने ग्वालियर में तोमर राजवंश की स्थापना की थी। 1416 ई. में खिज्र खॉं ने अपने वजीर मलिक ताज-उल-मुल्क को तोमर राजा विक्रमदेव से कर वसूल करने हेतु ग्वालियर भेजा था। तोमर राजा डूँगरसिंह के शासनकाल में ग्वालियर किले की दीवारों पर जैन प्रतिमाऍं उत्कीर्ण की गयीं, जो उनके द्वारा जैन धर्म को प्रश्रय देने का प्रमाण है। राजा मान सिंह तोमर वंश का सबसे प्रतापी राजा था जिसे दिल्ली के बहलोल लोदी, सिकन्दर लोदी एवं इब्राहम लोदी से युद्ध करना पड़ा। 1500 ई. में मानसिंह ने अपने प्रतिनिधि निहाल सिंह को सिकन्दर लोदी के दरबार में भेजा था। 1517 ई. में इब्राहिम लोदी ने मानसिंह से युद्ध कर ग्वालियर का किला जीत लिया। इसी युद्ध में मानसिंह को वीरगति प्राप्त हुई। मानसिंह ने ग्वालियर के किले में मान मंदिर तथा गुजरी महल का निर्माण करवाया था। मानसिंह ने ही संगीत के प्रमुख ग्रंथ मान कौतूहल की रचना की थी।
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